गोलाश्म और नदी....
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विशाल पहाड़ की ढलान पर
दौड़े जा रही थी
एक सुंदर नदी
चम चम चमकती हुई
स्फटिक सी स्पष्ट,
वैसा ही था ना बेदाग़
वह पानी
अनखोज अनछुआ
इंसानी तहज़ीब के हाथों से....
ख़ुद में करके समाहित
बसन्त में पिघलती बर्फ को
पा जाती थी नदिया और ज़्यादा ताक़त,
बहती थी वेग में
बदलते हुए सतह पहाड़ की
आती जो उसकी राह में ,
लुढ़काती हुई पत्थरों को
तोड़ती हुई पेड़ों को
नहीं था कोई भी वहाँ
जो कर सकता सामना
उसकी तेज कच्ची ताक़त का
बासंती मौसम के साथ साथ
बढ़ता जाता था दायरा उसका....
मिली थी इसी वसंत
सरे राह चलते चलते
एक गोलाश्म से
बहुत ख़ूबसूरत
पुष्ट डील डोल
चिकनी त्वचा
सोचा था नदी ने
बहा ले जाऊँगी उखाड़कर उसे
साथ अपने,
किंतु गहरी थी जड़ें उसकी
नामुमकिन था
पूरा होना उस मन्सा का,
नदी ने बदला था थोड़ा सा अपना रास्ता
लौट आयी थी फिर
पहले की अपनी राह पर
कहते हुए : "मिलूँगी फिर कभी"....
ज्यों ज्यों गरम रूत आती
हिमखंड के हिमखंड टूट कर
नदी को और ज़्यादा
पानी और कुव्वत दे देते
बहाव में और तेज़ी आ जाती
बाढ़ भी घटित हो जाती
सब कुछ तोड़ती उखाड़ती
बढ़ती जाती दरिया
जैसे उस ख़ूबसूरत नायक को
विचलित नहीं कर पाने का क्रोध हो,
तोड़ तोड़ देती कठोर चट्टानों को
छितर जाते पेड़ पौधे वनस्पति
और भी ना जाने क्या क्या....
मैदान में आकर तो
किनारों को तोड़ बाहर हो जाती
करने लगती गाँव बस्तियाँ तबाह
सब डरते थे
उसके विकराल रूप से,
कुंठा क्रोध प्रतिशोध शोर
जैसे हो गया हो व्यक्तित्व उसका
बस एक ही बात सालती थी नदी को
क्यों नहीं उस गोलाश्म को
अपने साथ ले आ पायी....
अगली यात्रा में कर ही दिया था
नदी ने इजहार अपने प्यार का
समा गया था गोलाश्म उसके प्रवाह में
या कहें नदी ने उसको ले लिया था
अपने आलिंगन में
बंट गयी थी नदिया छोटी छोटी धाराओं में
बहने लगी थी कई दिशाओं में
गोलश्म को अपनी छुअन में
हर पल रखते हुए....
अब उसके पास सब के लिए
कुछ न कुछ उपहार था
गिलहरी के लिए मेवे
तोते के लिए अनार दाने
छोटे छोटे पौधों के लिए पानी
कई कलमें जो बूटे बन सकती थी
ख़रगोश और हरिण के लिए भी
कुछ ना कुछ खाने के लिए....
मैदान में आने पर
चलने लगी थी नौका उसमे
लहलहा रहे थे हरियल खेत तटों पर
कितने ही ध्यानी ध्यान करने लगे थे
किनारों पर पनपे वृक्ष कुंजों में
चाहने लगे थे सभी नदी को,
कमाल था यह
कुंठा समाप्त होने का
ग़ुरूर मिट जाने का
साथी को पहचान लेने का
प्रेम में डूब जाने का....
उस मीठी प्यारी
फुहार सी धारा को
सभी तो प्यार करने लगे थे
नदी स्वयं प्यार हो गई थी
होना होता है ना प्रेम स्वयं को ही
प्रेम करने और पाने के लिए....
(गोलाश्म=Boulder)