Saturday, 24 November 2018

लौंग वाली चाय : विजया




लौंग वाली चाय.....
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नहीं होना था ऐसा
कत्तई भी नहीं होना था
नहीं की थी कभी कल्पना तक मैंने,
जब तक नहीं देखा था तुम को
कॉफ़ी-शॉप के एकांत कोने में बैठे
लौंग वाली चाय पीते हुए
मेल खाती थी
चमक जिसकी  
तुम्हारी चमकती आँखों के संग......

बहुत प्यारी थी
मुझे वह कॉफ़ी-शॉप
एक ऐसी 'अपनी वाली' जगह
जहाँ संग संग गये थे हम दोनों बार बार
करते थे तुम हमेशा ऑर्डर
मेरे लिए मेरी पसंद की काली कॉफ़ी का
और
ख़ुद के लिये
लौंग की ख़ुशबू वाली
उसी चाय का,
हो जाती थी मैं विभोर
तुम्हारी इस विशिष्ठ अति-साहसिकता के लिये
तुम ही तो हुआ करते थे 'एक'
एक काफ़ी शोप में चाय का
ऑर्डर देने वाले,
सुना था मैंने सिर्फ़ तुम्हारे लिये ही
उस कॉफ़ी-शॉप चैन ने रख रखी थी
वो लौंग की ख़ुशबू वाली चाय....

बताया था बहुत कुछ
मेरे दोस्तों और सहेलियों ने
फ़ितरत थी जिनकी
जस का तस कहने की
कहते रहे थे वे
बहुत ही जल्दी जल्दी बढ़ा रही हो तुम
पेंगें प्यार की
यह ना समझते हुये कि
कहाँ हो रही हो तुम,
बस सोचते हुये आज ही का
हर बात को परिभाषित करने में,
सुनना चाहिये था क्या
यह सब मुझ को ?

मैं सोचा करती थी कि
तुम तो बस वही थे
जिसे वो लोग कहा करते थे
'ऐसा बस एक ही है सिर्फ एक',
मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी अत्यधिक चमक ने
कर दिया था बिलकुल अंधा मुझे
बहुत सी बातों के खातिर
जिन पर शायद मुझे
देना चाहिए था ध्यान
लेकिन नहीं दे पाती थी
ना जाने क्यों ?
क्या मुझे तूफ़ान की आँख तक
पहुँच जाने के बजाय
होना चाहिए था उसकी कोर पर ?

हुआ करती है शायद फ़िल्में हमारी
कल्पित कथाएँ मात्र
अस्तित्व उनका हमारे जीवन में
होता है सीमित
बस अंत में दिखाए जाने वाले
आभार प्रदर्शन के नामों तक ही,
किंतु मैं तो जीने लगी थी
उसके आगे पीछे भी जा कर
बनकर दृष्टा
एक अनहोनी हक़ीक़त की
निर्देशकों निर्माताओं
अभिनेताओं के नामों से
परे के चक्र में भी...,

आख़िरी बार गये थे हम
उसी कॉफ़ी-शॉप में
ढूँढा था मैंने
उसी चिंगारी को
टिकी हुई थी मैं जिस पर
उन कई सालों पहले
इस बार देखा था मैंने सच में तुम्हें
उस थोड़ी सी रोशनी के पार भी
तुम तो थे
एक पूरे के पूरे थे प्रकाश-पुंज....

तुम ने दिया था ऑर्डर इस बार
दोनों के लिए काली कॉफ़ी का
बिना किसी लौंग की ख़ुशबू के,
बस यही तो थी तुम्हारी मंज़ूरी
उस रिश्ते की
जो जी रहे हैं हम....
मैं भी तो पीने लगी हूँ
लौंग वाली चाय.......

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