Saturday, 24 November 2018

अस्तित्व : विजया



अस्तित्व.....
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जब भी उठाया था अचानक
तुम एकत्व की बातें करने वाले ने
अपने स्वयं के अस्तित्व का प्रश्न
मुझे भी ख़याल आया
क्या कोई ऐसी सी चीज़
मेरे लिए भी बची है कहीं ?

बना लिया था मैंने
एक मंच
अपने सोचों के
ऑडिटॉरियम में
और बैठ गयी थी सामने
एक मात्र दर्शक बन कर,
शुरू कर दिया था मैं ने
फिर से नये सिरे से देखना,
एक के बाद एक
जोड़े रहे थे स्टेज पर
और अदा करके चले जा रहे थे
नृत्य अस्तित्व का,
देख रही थी मैं
मौन का अस्तित्व है
होने से कोलाहल के
अमृत का अस्तित्व है
होने से हलाहल के
सुख का अस्तित्व है
होने से दुःख के
स्थिर का अस्तित्व है
होने से चलाचल के,
ऐसे ही और बहुत से जोड़े
आ जा रहे थे
साथ साथ किंतु अलग अलग...

सोच ने लगी थी फिर मैं
कोई तो है ऐसा अस्तित्व
जो देता हैं
बीज को अंकुरण
पत्तों को हरियाली
फूलों को ख़ुशबू
कलियों को मुस्कान
पवन को वेग
सूरज को गरमाहट
चाँद को ठंडक
जीवन को सांसें
प्रेमियों को प्रेम
नयनों को स्वप्न
संगीत को सुर
इसको यह
उसको वह,
मुझे हुई थी अनुभूति
तुम मुझ से अलग होते हुए भी
जुड़े हो मुझ से
समा कर मुझ में.....

मैं तो वहाँ होकर भी
वहाँ नहीं थी
निकल गयी थी
एक अंतहीन यात्रा पर
तलाशने अपने लापता
अस्तित्व को
जो कहीं बाहर नहीं
मुझ में ही विद्यमान था
समाप्त ना होने वाली
यात्रा बन कर,
भेद और अभेद
भ्रम है या वास्तविकता
मिल जायेंगे
इन प्रश्नों के उत्तर भी
इस यात्रा में
जहाँ पा रही हूँ हर पल
सहयात्री तुम को....

अग़ला शब्द : संगीत

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