Saturday, 24 November 2018

मुझे कोई डोर खिंचे : विजया


मुझे कोई डोर खींचे
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रिश्तों को निबाहती हुई
देती रही थी मैं
शत प्रतिशत अपना...

कुछ पात्र अक्षम थे
कुछ थे स्वार्थपर
थे कई अबोध और विकासमान
कुछ तो मानो जन्मे ही थे
निर्भर होने को,
भरे पड़े हैं आज भी
घर परिवार, समाज, समूह और कार्यस्थल
ऐसे ही किरदारों से
थी कहीं कहीं मैं भी मोह के आधीन,
किंतु लगता था मुझे
करती हूँ और करती रहूँगी
मैं प्यार सब से....

कहते थे लोग
कितना कुछ करती हूँ मैं
सब के लिए
बाँध रखा है मैंने सब को एक डोर में
मैं भी तो जिये जा रही थी इसी भ्रम में....

कभी सोचती थी माला, मोती और धागों को
कभी पतंग और डोर को
कभी सोचती थी स्वयं को
सात घोड़ों की रासें पकड़े सूरज सा....

फ़िर शनै शनै होने लगा था मुझे एहसास
मैं तो हूँ केवल एक कठपुतली
जिसकी बहुत सी है डोरें
पकड़ायी हैं मैंने ही जिनको
कई एक अपनों के हाथों में
नचा रहे हैं मुझे जो
कभी अकेले कभी साथ साथ
करती हूँ मैं महसूस हर बार ज्यों
मुझे कोई डोर खींचे.....
मुझे कोई खींचे डोर से.....

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