क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?
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झाँका था दर्पण में
जब उसने ,
दृष्टि में झिझक
और कंपकपाहट अधरों पर
स्वाभिमान में थे भाव
आत्मलीनता के
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझे ?
इंगित था
पलकों के झुकाव में
नयनों में बस जाना
किसी का
मौन में थी व्याकुलता
मुखर हो उठने की,
अदाओं में थी चंचलता
चंचलता में थी लज्जा
लज्जा में भी थी चपलता
चितवन में था नटखटपन
मन्द स्मित फूट रहा था
ज्यूँ अंग प्रत्यंग से
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझे ?
शरारत सी दौड़ रही थी
सपनीली आँखों में
ना जाने क्यों फिर भी
एक हिचकिचाहट सी थी
देखने और दिखाने में
सहम सा गया था
साहस ज्यों ,
गहन गांभीर्य में
घबराहट सी थी
स्थिरता में भी
सरसराहट सी थी
उजागर थी हक़ीक़त
नयनों के सुंदर वातायन से
बेकाबू थी धड़कन
स्पंदनों की छुअन से
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?
चाँदनी रात में
किया था महसूस
अकेले ही छत पर
अपनी अलकों को
उसके सीने पर
पाया था सन्निकट
कपोल द्वय को
अगन की दहन थी
ज्यों जल रहा था
अंतर धू धू
टीस थी पीड़ा भी थी
अधरों पर घुटी घुटी आहें थी
वो बहकी बहकी
भीगी सी निगाहें थी
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?
दर्द उसका
छू लेता था
अपना ही दर्द होकर
छा जाती थी
ख़ुशी उसकी
अपनी ही ख़ुशी बन कर
व्यग्रता थी बाँट लूँ
हर्ष और विषाद को
होना उसका स्पष्ट था
हर उतार और चढ़ाव में
साथ उसका मुहैया था
हर प्रवाह और ठहराव में
ना हो कर भी
हुआ करता था इर्द गिर्द
कह बैठी थी अनायास
स्वयं से
हो ही तो गया है प्रेम मुझ को !!!!
😊😊😊
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