भँवरे और कलियाँ.....
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कवियों ने तो देखा है
रोमांस हर इक चमन में
कलियों की खिल खिल में
भँवरों के गुन गुन गुंजन में....
ज़िंदगी की गलियों में
गूँजते भँवरे अनेक
कलियाँ भी फैली हुई
न्यारी न्यारी होती प्रत्येक....
भँवरे तो शातिर होते हैं
फ़ितरत रंगी को जीते हैं
इस कली से उस कली
फिर फिर रस को वो पीते हैं....
रस के लोभी भँवरों की
ख़ुदगर्ज़ी का क्या कहना
चूस चूस कर रस सारा
अपनी ही मौजों में बहना...
मीठी बातें कर कर भँवरे
कलियों को ख़ूब बहलाते हैं
रग दुखति को पहचान परख
वो शिद्दत से सहलाते हैं....
उतार शीशे में कलियन को
उन पर हावी हो जाते हैं
रस पीकर अघा जाते हैं जब
ग़ायब वो हो जाते हैं.....
बगिया के कुछ पके भ्रमर
उलटा गुंजन कर लेते हैं
नव कलियों को वो देख देख
उमंग नई भर लेते हैं.....
कुछ कलियाँ होती हठी
ख़ुद पर होता है घमंड
चतुर और चालाक भँवरे
लाभ लेते हैं प्रचंड...
देखी है कलियाँ हमने भी
नाज़ुक और मासूम सी
जुल्मी भँवरों पे मिटती जब
रह जाती मग़्मूम सी...
ऐसी कलियाँ भी होती है
अंदर बाहर जुदा जुदा
भँवरों का रस पी जाती
करते भँवरे है खुदा खुदा...
कुछ कलियाँ अपने भँवरों को
ऐसा नाच नचाती है
फिरते आगे पीछे उनके
हाथ नहीं वो आती है....
जिस्मो ज़ेहन की ज़रूरियात
कली फूल को कर देती
भँवरा जो भी मिल जाता
संगी उसको है कर लेती....
कली भ्रमर के खेल परे
जीवन में सब कुछ हो सकता
गहरे प्रेम की छांव तले
उत्कट आकर्षण जी सकता...
मग़्मूम=दुखी, उत्कट=तीव्र/प्रबल
(दुखती को दुखति इच्छा कर के लिखा है)
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