Monday, 28 July 2014

घर और नदिया ..(दीवानी सीरीज)

स्वांत: सुखाय 
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बंधन,,,,,,(दीवानी सीरीज)

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सोचों की जड़ में जो भी होता है,  जिन्दगी के प्रति  हमारा नजरिया वैसा ही हो जाता है. दो या दो से ज्यादा इन्सान जब एक दूसरे से जुड़ते हैं तो इसे साथ चलने का ज़ज्बा भी समझ सकते हैं और 'बंधन' भी.....रिश्तों की गुणवत्ता इस पर निर्भर करती है कि हमारी उनको देखने कि शुरुआत कैसे हुई , हमने उन्हें साथ चलने का एक शुभ अवसर, साथ रह कर खुद को बढ़ाने का एक सौभाग्य, प्रभु की कृपा, एक नैसर्गिक घटना समझा या यह समझा कि यह तो है एक बंधी हुई शै....एक बंधन ....एक मजबूरी....एक निभाना.....महज़ एक फ़र्ज़ अदाई.

जाल : दीवानी की बात

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देखिये वह क्या कहती थी :

"जीवन के
इस बंधन में
इतने जकड़े हुए हैं
हम लोग
कि कुछ और नज़र ही
नहीं आता.,,,

ज्यों ज्यों
बढ़ते हैं आगे
फंसते ही चले जाते है
अपने ही बुने जाल में
मकड़ी की तरह."

(Adapt of a poem by विद्या भंडरिजी : with regards n thanx.)

क्यों हो गया ऐसा ? : बात 'वि' की 

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"क्यों हो गया ऐसा ?"
यह सवाल मेरे दिलो-जेहन को झकझोर रहा था...वह 'बेडरूम' में करवटें बदल रही थी और मैं 'स्टडी' में अपनी 'रोकिंग' चेयर पर बैठा सिगार के धुएं में कुछ ऐसा सा देख रहा था:
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जब हम उड़े थे
खुले आकाश में
नहीं था कोई भी बंधन
बीच हमारे,,,

बरसों की जमी धूल
आ गयी थी अचानक
तूफाँ बन कर सामने हमारे,
खोल दी थी तुम्हारी असुरक्षा ने
किताब एक नियमों-उपनियमों की
करणीय और अकरणीय की,,,

ना जाने क्यों 
दिल की सच्चाई से भी ऊपर
समझने लगे थे हम
अगन की गवाही को
जो बहुत मंद थी 
हमारे दिलों में बसी
प्रेम अगन से,,,

सिंदूर की लालिमा से भी ज़्यादा
चमकते थे ना चेहरे हमारे 
होते थे जब जब हम करीब
इक-दूजे के,
वेदमन्त्रों से कहीं ज्यादा
तेजोमय और मधुर थे वे स्वर
जो बिना गूंजे गूंजते रहते थे
तेरे होने में...मेरे होने में, हमारे होने में,,,

यही नहीं तुमने
पहनवाया था जामा निकाहनामे का
इस रूहानी रिश्ते को
ताकि खुश हो सकें 
वे लोग,
जिनमें तू पली बढ़ी थी,
रजिस्ट्रार की किताबों में किये गये
तुम्हारे और मेरे दस्तखत
इस महज़ इस मकसद से थे
यह रिश्ता होगा और भी मुक्कमल,,,

कैसे उठा पाते इतने बड़े बौझों को
ये नाज़ुक से एहसास
जो कोमल है फूलों से भी बढ़कर
नाम दे कर बंधन का
बे मौत कर दिया है
क़त्ल हमी ने उन खुली सांसों को
जिनकी बुनियाद पर खड़ा हुआ है 
महल हमारी मोहब्ब्त का,,,

सच ही तो कहती हो तुम:
ज्यों ज्यों आगे बढ़ते हैं
फंसते ही चले जाते हैं
अपने ही बुने जाल में
मकड़ियों की तरह,,,

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