Wednesday, 30 July 2014

आनी जानी...

आनी जानी...

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होते हैं कुछ पंछी ऐसे,
नहीं होता जिनका कोई बसेरा
होती है कुछ रातें ऐसी
नहीं होता जिनका सुखद सवेरा,,,,,

नयनों के परिचय का क्या है,
दोहराये निश्चय का क्या है,
कहाँ सत्य निर्वचन हमारा ?
बलिदानों की पृष्ठभूमि में
छुपा हुआ जो तेरा मेरा,,,,,,

योग सुहाने हो सकते थे
कैकयी दशरथ को ना छलती,
आ सकते थे कुछ पल ऐसे
सीता अग्निस्नान ना करती,
होना था जो, हो ही गया था
समझो था बस समय का फेरा,,,,,,,

खाक हुई सोने की लंका,
देखा श्रद्धा को बनते शंका
अस्तित्व भ्रम ने किस कारण यूँ
स्वयं पुरुषोत्तम को था जो घेरा ?

अनहोनी होनी हो जाती
बनती प्रस्तर फूल सी छाती,
घटनाएँ तो आनी जानी
जीवन यह दो दिन का डेरा,,,,,,

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