Monday, 30 December 2019

स्वस्थ प्रेम और आसक्त उत्तेजन ,,,,

'स्वस्थ प्रेम' (Healthy Love) और 'आसक्त उत्तेजन' (Addictive Excitement) : चिंतन को खुराक
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हम सब बहुत ही इच्छुक होते हैं 'प्रेम' की खोज के लिए लेकिन 'आसक्त उत्तेजन की लत' छीन लेती है हम से 'खरे प्रेम' को. प्रेम केवल प्रेम होता है और उसे किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं. चूँकि भाषा की सीमाएँ हैं , 'स्वस्थ' विशेषण का अतिरिक्त प्रयोग बस स्पष्टता के लिए किया गया है. 'आसक्त उत्तेजन' के नज़दीकी हैं (पर्याय नहीं) सम्मोह और आसक्ति...जिन्हें भी इस से लगभग समझा जा सकता है.

कुछ दशकों पूर्व शोध के दौरान मेरा यह नोट अंग्रेज़ी में तैय्यार हुआ था. यह उसका हिंदी रूपांतरण है.

मैं कुछ बिंदु  दोनों के अंतर के साझा कर रहा हूँ.

(१) हमारे द्वारा अपने सुरक्षित होने को महसूस कर पाने के बाद 'स्वस्थ प्रेम' उभरता है और विकसित होता है.
'आसक्त उत्तेजन' प्रयास करता है 'प्रेम' से मिलता जुलता  कुछ सृजित करने का यद्यपि हम उसमें भय और असुरक्षा महसूस करते है.

(२)  स्वस्थ प्रेम' आता है जब हम अपने को 'पूरा और तृप्त' महसूस करते है...जब हम प्रेम से लबरेज़ होते हैं.
'आसक्त उत्तेजन' एक  प्रयास होता है  भीतरी खोखलेपन को भरने के क्षणिक एहसास मात्र महसूस करने का.

(३) 'स्वस्थ प्रेम' की शुरुआत होती है 'स्वयं को प्रेम करने' से. 'आसक्त उत्तेजन'  में हम खुद के प्रति प्यार से परे हो जाते हैं और प्यार किसी और 'स्पेसल' में खोजने लगते हैं जिसकी स्पेसीयलिटी अपनी ही मानसिक कल्पना में देखते रहते हैं यथार्थ को दर किनार रख कर.

(४) 'स्वस्थ प्रेम' जब घटित होता है हमारी कथित 'प्रेम तलाश' पूरी हो जाती है
'आसक्त उत्तेजन' में हम हर दम प्रेम प्रेम जपते उसी 'आसक्त उत्तेजन' को ढूँढने में लगे रहते हैं.

(५) 'स्वस्थ प्रेम'  धीमी  गति से विकसित होता है एक पेड़ की तरह. 'आसक्त उत्तेजन' तीव्र गति से बढ़ता है एक जादू की तरह.

(६) 'स्वस्थ प्रेम'  हमें संवेदनशील होने देता है क्योंकि हम भीतर से सुरक्षित महसूस करते हैं....इसकी नींव मज़बूत और स्थिर होती है.
'आसक्त उत्तेजन'  की नींव कमज़ोर और डाँवाडोल होती है...हमें हर समय लगता है कि हम सम्बंध को बचाने और बनाए रखने के लिए सुरक्षा उपाय करें.

(७) 'स्वस्थ प्रेम' पार्टनर के साथ भी और अकेले में भी खिलता रहता है.
'आसक्त उत्तेजन'  को भय रहता है अकेले रहने में...उत्कंठा रहती है हर समय सामने/साथ हो पार्टनर.

(८)  'स्वस्थ प्रेम' का उद्गम प्रत्येक पार्टनर में निहित पुरुष और स्त्री गुणों के संतुलन से होता है.
'आसक्त उत्तेजन' में 'सुपर पुरुष गुण' या 'सुपर स्त्री गुण' की परिकल्पनाओं का आयोजन होता  है और एक दूसरे में उस मिस्सिंग आधे को खोजने का उपक्रम होता है.

(९) 'स्वस्थ प्रेम' हमें प्रोत्साहित करता है यह महसूस करने के लिए कि हम खुद अपनी दुनिया सृजित कर सकते हैं और खुश हो सकते हैं.
'आसक्त उत्तेजन'  में हम किसी का हमारे ऊपर आधिपत्य देखने लगते हैं. हम ऐसा पार्टनर तलाशने में लगे होते हैं जो अपनी ऊर्जा हमें देकर हमें पूरा कर दे.

बहुत झीनी बात : मामला इरादे और उसको लागू करने का है. सहभागिता-सहयोग लाज़िमी : स्वस्थ प्रेम
बौझा बन जाना या बना लेना : आसक्त उत्तेजन.

(१०) 'स्वस्थ प्रेम' शालीन और सुखद.
'आसक्त उत्तेजन' तनावपूर्ण और लड़ाकू.

(११) 'स्वस्थ प्रेम'  हमें हमारे स्वयं होने के लिए प्रोत्साहित करता है......शुरुआत से ही "हम कौन हैं ?" के नज़रिए को ईमानदारी से खोजकर अपनी कमियों के प्रति भी स्पष्ट और स्वीकार को तत्पर.
'आसक्त उत्तेजन' तरह तरह की गोपनीयता और दोहरेपन को प्रोत्साहित करता है. हम इसमें हरदम अच्छे दिखने की कोशिश करते हैं और आकर्षक मुखौटा भी लगा लेते हैं.

(१२)  'स्वस्थ प्रेम'  में हमारे 'स्व सारतत्व' के गहरे आभास की सुध (चेतना/होशमंदी) लगातार सृजित होती है जितना लम्बा हम पात्रों का साथ होता है.
'आसक्त उत्तेजन' में 'स्व सारतत्व' की सुध खोने लगती है जितना लम्बा पात्रों का साथ चलता है.

(यहाँ स्व से अर्थ हमारी रूह और आन्तरिक मौलिकता से है. पार्टनर्स एक सा होना तय कर सकते हैं खुद के लिए/सहज एक जैसे हो जाते है ख़ुशी और आज़ादी के साथ, ना कि किसी भी भावनात्मक दवाब के तहत)

(१३) 'स्वस्थ प्रेम' समय गुज़रने के साथ अधिकाधिक सहज और आसान होता जाता है.
'आसक्त उत्तेजन'  में समय गुज़रने के साथ अधिकाधिक प्रयास रिश्ते में रहने हेतु करना ज़रूरी हो जाता हैं. रोमांटिक छवि को बनाये रखना अति कठिन हो जाता है.

(१४) 'स्वस्थ प्रेम' अधिकाधिक विकसित होता जाता है जैसे जैसे भय के एहसास कम होते रहते है.
'आसक्त उत्तेजन' फैलता है (गहराई और प्रगाढ़ता कम होने से आशय) जैसे जैसे भय के एहसास बढ़ते जाते हैं.

(१५)  'स्वस्थ प्रेम'  संतुष्ट होता है अपने पार्टनर के 'यथारुप' साथ होने से....गुणवत्ता में विकास प्रेम में नैसर्गिक चाहे सप्रयास हो या निष्प्रयास.
'आसक्त उत्तेजन' हमेशा 'और ज़्यादा बेहतर'  के लिए बस देखता रहता है एक तृष्णा के रूप में....नतीजा असंतोष और कूँद फाँद.

(१६)  'स्वस्थ प्रेम' हमारी सुरुचियों को और बढ़ाने में प्रोत्साहित करता है.
'आसक्त उत्तेजन'  हमारी सुरुचियाँ कम करने को मजबूर करता है.

(१७)  'स्वस्थ प्रेम'  इस भरोसे पर आधारित है : हम साथ रहना 'चाहते' हैं.(स्वतंत्र इच्छा)
'आसक्त उत्तेजन'  इस सोच पर आधारित है : हमें साथ रहना ही चाहिए.(compromise/adjustment/mazboori)

(१८)  'स्वस्थ प्रेम' हमें सीखाता है कि हमारी ख़ुशी के कर्ता हम ही हो सकते हैं.
'आसक्त उत्तेजन'  हमें सीखाता है कि दूसरे हमें खुश करेंगे और यह माँग भी करता है कि हमें भी दूसरों को खुश करने का प्रयास करना होगा.

(१९) 'स्वस्थ प्रेम' जीवन में जीवन्त्तता का सृजन करता है.
'आसक्त उत्तेजन' भावुकता भरी नौटंकी का मंचन कराता है.

(२०) 'स्वस्थ प्रेम'  सम्पूर्ण होता है.....यह खुद के बूते पर चल सकता है..पार्टनर्स का आपसी सहयोग 'गहरे प्रगाढ़ साथ' को हासिल करता है.
'आसक्त उत्तेजन' भंगित और अपाहिज होता है...ऐसा साथ बस बैसाखियों का काम करता है और एक बदसूरत निर्भरता की तरफ़ अग्रसर रहता है.

होशमंदी (Awareness), स्पष्टता (Clarity) और स्वीकार्यता (Acceptance) के मंत्र को अपना कर और आपसी समझ का सृजन कर, 'आसक्त उत्तेजन' की तरक़्क़ी 'स्वस्थ प्रेम' के स्तर तक की जा सकती है....सर्वथा सम्भव है यह किंतु देखा गया है कि कई बहाने, असुरक्षा भाव, पूर्वाग्रह और मिथ आड़े आ जाते हैं.

स्वातिजी (Swati Bajpai) एक मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक है उनके विचार इस पोस्ट पर comments में  हैं जिन्हें मैं इस नोट का उपसंहार बना रहा हूँ उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ :

"शुरुआत में लोग जिसे प्रेम कह देते हैं वह 'आकर्षण' होता है हार्मोंस, फेरोमोंस और केमिस्ट्री आधारित.

प्रेम एक रहस्य है......किंतु आपसी सम्मान, परवाह, और आकर्षण की स्वस्थ 'डोज़' मिल कर प्रेम कहे जा सकते हैं."

Sunday, 29 December 2019

लोंग रोप.....: विजया


'लोंग रोप'.....
+++++++
विभ्रम था मेरा
सुन कर
'जी' 'हाँ' जी हाँ' 'हाँ जी' 'जी अच्छा' आदि
शब्द हुंकारे के
बहक जाते थे होकर
फूल कर कुप्पा😅...

कितने छलावे
कितने दिखावे
बन गए थे
महज़ 'केस स्टडीज़' तुम्हारी
खोलने परतें मानव मनोविज्ञान की
जीने हेतु तुम्हारे जीवन दर्शन को...

जब जाना पैनी नज़रें
अंतरदृष्टि
और पीने पचाने की
क्षमता तुम्हारी
रह गयी थी आवाक मैं
मुश्किल था सह पाना
कितने रहस्य समाए बैठे हो
तुम खुद में...

अस्तित्व के पास भी होगा
तुम सा 'लोंग रोप'
जो देते रहते हो हंसते हाँसाते
उन लोगों को
जो कभी कुटिलता
कभी मजबूरी
कभी आदतन
आघात पहुँचाते रहते हैं तुम को....

माँग लूँ कई और जनम
तुम्हें पूरा जानने के लिए
तुम छलिये बहुरूपी
ना जाने कितने रूपों में समाये
जीये जा  रहे हो संग मेरे
उसी मासूमियत से
क़ायम है जो
अपने बालपन से...

(यह भी एक केस स्टडी है😀😀)

अपूर्णताओं में सौंदर्यदर्शन....


अपूर्णताओं में सौंदर्यदर्शन,,,
##############
१)
सुनो ! याद है ना उस दिन
'किक्कोमन' सिप करते हुए 
उस 'किन्तसुगी बोव्ल' पर अंकित 
पढ़ा था हम दोनो ने :
"बनायी है कीमिया उसने 
मिलाकर हृदय में संगृहित सारे स्वर्ण जालों को,
और सजाया है  उन समस्त अपूर्णताओं को 
छुपाए रखता था जिनको मैं अखिल संसार से."

कहा था उस दिन मैंने 
समझूँगा अब से 'वाबी साबी' को 
देखूँगा ख़ूबसूरती 
कमियों और अपूर्णताओं में,
कहा था तुम ने,
भूल पाओगे क्या तुम अपने 
'ग्रेसो-रोमन' जुनून को 
मारते हो रोज़ डींगें 
साम्यता, सुडौलता और सम्पूर्णता की,,,

मिले थे युगल द्वय नयन 
अपूर्णता की पूर्णता लिए 
कह दिया था सब अनकहा 
सहज मुस्कान ने
हुए थे फिर से तत्पर 
मिलाने को हाथ एक और बार 
हो गए थे जुदा फिर से 
मिलने को फिर एक बार,,,,,

२)

होती है पूर्णता एक मिथक 
एक सापेक्ष भ्रांति 
जो देती है जन्म 
संतुष्टिजनित निष्क्रियता को 
अहमजनित दर्प को...

असफलताएँ 
अपूर्णता 
अभाव 
सहज किंतु अटल और अनिवार्य हिस्से  
हमारी शख़्सियतों के,,,,

नहीं नकार सकते हम 
रिक्ततायें बना देती है 
हमें विश्वासशून्य और डाँवाडोल
आ जाती है आड़े ये 
कुछ भी अर्थपूर्ण एवं रचनात्मक 
कर पाने की राह में,,,

बदलनी है हमें दृष्टि अपनी 
स्वीकार कर 
सौंदर्य अपूर्णता का 
करना होगा हमें 
सौंदर्यीकरण अधूरेपन का,,,

भरना है हमें इन दरारों को
स्वीकार्यता की चपड़ी से 
सजाना है इन्हें 
गरिमा की अभिन्न परतों से 
आत्मविश्वास की मीनाकारी से
देखेंगे हम 
वह 'किन्तसुग़ी' प्याला फिर एक बार..
उस सुन्दरता में बिम्ब अपना  
करते हुये 'सिप' 
'किक्कोमन' फिर एक बार,,,,,

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Notes :
वाबी साबी : जापान के मनीषियों का एक दर्शन जो अपूर्णता को सहज स्वीकारने और उसमें सौंदर्य देखने का जज़्बा सुझाता है.

किक्कोमन : जापानी रेड वाईन

ग्रीसो रोमन : यूनान और रोम की सभ्यताओं और संस्कृतियां
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Description
In traditional Japanese aesthetics, wabi-sabi (侘寂) is a world view centered on the acceptance of transience and imperfection. The aesthetic is sometimes described as one of beauty that is "imperfect, impermanent, and incomplete".
“Sabi” is translated to “taking pleasure in the imperfect.” The concept of wabi-sabi, is wide and almost impossible to distill in a single post, but caneasily be applied simply to moments of everyday life.
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Greco-Roman : Denotes the cultural effects of Greek and Roman Culture on all walks of life where the craving and emphasis is on perfection.

Thursday, 26 December 2019

तुम्हारी रहस्यमयी आँखें,,,,,


तुम्हारी रहस्यमयी आँखें,,,,
############
तुम्हारी रहस्यमयी आँखे
ना नीली है
ना ही हरी या ग्रे
हर रंग अधूरा-पूरा
मिली जुली रंगत
अद्वितीय और नित्य नवीन !

कराते है ख़याल मुझ को
ये एक जोड़ा नयन :

गरम मौसम के समंदर का
है जिसमें
गहराई भी, चंचलता भी, विस्तार भी
देते हुए एहसास
शांत शीतलता का,,,,

अडिग सदाहरित पहाड़ के
जैतूनी छोर का
बताता है जो
हर दिन की सुबह और शाम को,,,,

नयी फूटी कोंपलों का
मासूम लालिम हरा रंग जिनका
प्रतीक है नई शुरुआत का,,,

सर्दी की सुबह में जमे पाले का
चूम रखा हो जिसने
किसी जंगली हरे पत्ते को
कहता है जो कहानी
द्वैत के अद्वैत की,,,

पतझड़ के पतों का
होते हैं जो परिपक्व
अपने अपने रंगों में
घटाटोप 'ग्रे' पतझड़ के साथ,,,

बेताब चकोर का
जीता है जो
अपनी आँखों में बसा कर
चमक अपने चाँद की,,,

Tuesday, 24 December 2019

दीवाने दीद...

छोटे छोटे एहसास
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पढ़ते हैं अशआर
तेरे दीवान ए दीद के
काफ़ी है
मगर काफ़ी नहीं है,,,

बहुरूपी बहुरंगी,,,,,


बहुरूपी बहुरंगी,,,
#########
तुम्हारे साथ का प्रत्येक क्षण 
दिखाता है कई रंगों में 
मुझ स्वयं को ,
नहीं है ना सब कुछ एक रंग,
विपुलता है जीवन की 
जगमगाती है जो 
प्रत्येक स्पर्श के साथ,,,

मैं बहुरूपी बहुरंगी 
चाहता हूँ निरंतर 
स्निग्ध साथ तुम्हारा
देख सकूँ ताकि
सौंदर्य जीवन का 
स्पष्टता से 
होकर तुम्हारा आईना,,,

Saturday, 21 December 2019

मधु यमिनी रे....


मधु यामिनी रे,,,,,
#########
विकटोरियन हाउसेज* का चक्कर
घोड़े गाड़ी में लगाते
सुनते हुए दास्ताने महलनुमा घरों की
उस कोचवान युवती से
होकर रोमांचित
रुक गये थे हम दोनों भी एक 'पेलेस' में
जीने को कुछ विगत, आगत और वर्तमान,,,

उस भोर
'बीच' पर चल पड़े थे चार नंगे पाँव हमारे
हवा की लहरियों में
सुना रही थी पवन मतवाली हमारा पसंदीदा गीत
टंका हुआ था चाँद भी ठीक हमारे ऊपर
"हम्म !".......और अनगिनत सितारे भी
शानदार और अथाह...
देखा था एकटक मैंने
उन अनोखी आँखों में
मंत्रमुग्ध कर रहे थे वे दृग द्वय..
रहस्य भरे युगल नयन,
जिन पर बस मरा जा रहा था मैं,,,

दीर्घ साँस ली थी उसने
कर रही थी शायद याद कुछ कुछ वह
"क्या तुमने कभी कल्पना भी की थी
इस तरह हमारे फिर एक बार साथ होने की--
कोई दूसरा जन्म या कोई अन्य ब्रह्मांड ?"
पूछा था उसने एक अलग ही अन्दाज़ में
शांत समंदर को निहारते हुए..
"हम्म !"
और चूम ली थी मैंने होले से
गहराती आँखें उसकी,,,

बिखरी हुई चाँदनी
और बिखरे गेसू उसके
चमकती रेत
आँखों की चमक से मिली
एक दिव्य नज़ारे का एहसास सा
सागर किनारे का सुकून
बाहों में डूबे एक दूजे के....
मेरी शायराना फुसफुसाहट
उसका कभी कभी
केवल एक शब्द बोला जाना
"हम्म !"
फिर से एक गहरा सा तूफ़ानी मौन
क्या कुछ नहीं समाया था उस पल में,
उसके मेरे चुने शंख और सीपियाँ गवाह है उसके,,,

शाम मस्तानी
फ़िज़ा थी दीवानी
चल रहे थे हम हाथों में हाथ लिये
मिल रही थी साँसे निरंतर
हो रहा था बोध एकत्व का,,,,

रिलेक्स हो बैठ जाना
कँवले कबाब...कड़े नट्स
हरी सेव...रेड वाईन
मेरा अंतहीन कहानियाँ सुनाने का उत्साह
सुनना उसका दत्तचित्त होकर शिद्दत से
आँखों से बरसते बेशुमार प्यार
उसका कहते रहना 'हम्म !'

"आज के लिए यहाँ इतना ही.."
कहना उसका कई बार,
बातूनीपन से कहीं ज़्यादा मेरा लालच
खुले आसमान के नीचे
कुदरत के बीच
उसके साथ का लुत्फ़ लेने का,
टाले जा रहा था मैं उठना
उसी से उधार लिया 'हम्म !' कह कर बार बार
और फिर उसका
'कुछ'कहने के लिए 'कुछ और' कहने का अन्दाज़ :
"LV** की पैंटिंग्स की वो नई कोफ़्फ़ी टेबल बुक को देखेंगे क्या ?"

जगा दिये थे सोये हुये सुलगते अरमान
समंदर की नमकीन हवा और हमारे सुरूर ने
कहा नहीं था किसी ने कुछ भी
सिवा एक समवेत 'हम्म' के,
....और लौट चले थे हम दोनों,
कदमों में थी एक अल्हड़ गति
और होठों पर,
" ...........मधु यामिनी रे !"***

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*अमेरिका के 'केप मे' बीच का
**Lorenado Da Vinci जिनकी प्रसिद्ध पेंटिंग है Monalisa
*** टैगोर के एक गीत के शब्द
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Sunday, 1 December 2019

शर्मो हया कहां ? : विजया


शर्मो हया कहाँ ?
+++++++++

वो ही भाषण 
वो ही मोमबतियाँ 
वो ही घड़ियाली आंसू 
अभी ना जाने कितनी 'निर्भयायें' होंगी....
भय के बने रहते निर्भया कहाँ ?

भय हम से कहलाता हैं
हम माँ हैं
हम बहन हैं 
हम बेटी हैं 
हमारे साथ बलात्कार ना करो,
जैसे माँग रहें हैं भीख अपने बचाव की 
स्त्री अस्तित्व के संघर्ष में दया कहाँ ?

संसद तुम्हारा 
विधान सभाएँ तुम्हारी 
क़ानून तुम्हारा 
पुलिस तुम्हारी 
न्यायालय भी पुरुष जजों का 
ऐसे में 'निर्भया एक' के संहारक ज़िंदा है
सजा देने वालों की शर्मो हया कहाँ ?

Wednesday, 6 November 2019

चलती रहती है ज़िंदगी : विजया


चलती रहती है ज़िंदगी....
+++++++++++++
उकेरा है अनगिनत सूरजों ने
पहली रोशनी को हर सुबह
मगर खो ही गए वे भी हर रोज़
साँझ के धुँधलकों में,
बनते हैं गवाह तारे लाखों
घोर अंधेरे के वजूद के
मगर नहीं होती गुम नज़र कोई भी
नहीं होता ग़ायब कोई नज़ारा भी
ना ही खोती है क़ुदरती धज किसी की
हुआ रहता है हाज़िर हर लम्हा नाज़िर,
फिर भी यह रात है ना
फाँसती है चाँद को
रात के काले अंधेरों में
चलती रहती है मगर यह ज़िंदगी
मुसस्सल तब भी......

Wednesday, 30 October 2019

वह ग़मज़दा लड़की.....

draft :

वह ग़मज़दा लड़की,,,,
##########
वह करती रही तैयार मुखौटे
खातिर खुद के
देख कर वो चेहरे
जो मिला करते थे हर रोज़ उसको  :
दोस्त ओ दुश्मन
अहल ओ अयाल
सिन्मा की वो हसीन अदाकारा
वो ताक़तवर सियासतदाँ खातून
यूनिवरसिटी की वो ज़हीन उस्तानी
टेलिविज़न पर तक़रीर करती वो अल्मा अदीबा
उसकी पाकीज़ा माँ,शोख़ बहन और मगरूर भाभी
यहाँ तक कि कोई फ़ैशनबाज पड़ोसन
वो लड़की भी जो हर सुबहा
उसके दरवाज़े पर
अख़बार और पाव रोटी दिया करती थी,,,

वो हँस लेती थी ख़ूब
लोगों के घटिया चुटकलों पर,
हिला देती थी सिर अपना
जब भी हिलाते थे वे अपने सिरों को
कभी बेवक़ूफ़ी...कभी सादगी में,
देखा था समझा था जाना था उसने
फजूल के दिखावों को
लोगों की नादानी और बेइल्मी को
झूठी अना और बनावटीपन को
अहसासे कमतरी और बढ़तरी को...

किया था मंज़ूर उसने
उनके मुस्तहकम जाबिता ए इखलाक और सलीकों को
कोशिश भी की थी अपनाने की उनको
उन्हें जीने की भी,
ये इखलाकियत थी
उन्ही लोगों की
जो लालच ओ हिक़ारत से घूरते थे
झीने लिबास में ढके
किसी औरत के मांसल जिस्म को
चबाते हुए मटन का टुकड़ा
बेशर्मी और बेसब्री से,
ये अदबो क़ायदे थे
उन्ही लोगों के जो
लबों पे तवस्सुम....दिलों में ज़हर रखते हैं
मुँह में राम बग़ल में छुरी रखते हैं
लोक लिहाज़ से सच कहने में डरते हैं
जो किसी के साथ जीते नहीं उन्हें हाँकते हैं,,,,

की थी भरपूर कोशिश उसने
घुलमिल जाने की
उन लोगों में
जो कराते थे हर घड़ी महसूस उसको
कभी जानकर कभी अनजाने में
तरह तरह से जताते हुए
के वो उनमें से एक नहीं
करते थे जो नाकाम कोशिश
साबित करने की
के
बिना उनके उसका कोई वजूद नहीं,,,,

और आज की रात
जब वो गैलनों आँसू बहा रही थी
जान चुकी थी वो कि उसका दर्द और उदासी
महज़ उसकी अपनी थी
उस बेपनाह दर्द को बाँट लेने के लिए उसके साथ
महज़ उसका बिस्तर और तकिया था
और जब भी तकती उपर की जानिब
उसकी साथी हो जाती
वो सूनी सूनी छत उसकी तरह ही
एक इबारत के उतरने के इंतिज़ार में,,,

अल्मा अदीबा=विदुषी, अहल ओ अयाल=परिवार, बेइल्मी=अज्ञानता, अदाकारा=अभिनेत्री, सियासतदाँ=राजनीतिबाज, खातून=महिला,ज़हीन=मेधावी, उस्तानी=महिला प्रोफ़ेसर, मगरूर=घमंडी, अना=अहम, कमतरी=inferiority, बढ़तरी=superiority, मुस्तहक़म=कड़ी
जबिता ए इखलाक=नैतिकता, अदब..क़ायदे..सलीक़े =सभ्यता

Wednesday, 16 October 2019

समापन नहीं...

शब्द सृजन : मृत्यु, अवसाद आदि
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समापन नहीं,,,
#######
••••••••••
यह समापन नहीं
मृत्यु भी नहीं
प्रत्युत
हैं कुछ और
है कुछ और,,,
•••••••••
होते हैं ना
कुछ पल
जब नहीं कर पाते हम
अनुभूति रचनात्मक वर्तमान की
परिकल्पना सकारात्मक भविष्य की,,,

पड़े होते हैं हम
ताकते हुए
उन्ही दीवारों को
उसी छत को,
होते हैं आसपास
वे ही शब्द
जिनमे और कुछ नहीं
बस समाहित होते हैं
वे ही भाव चिंतन और स्पंदन
विगत के
खोखले
ख़ाली ख़ाली
सुस्त पीले पीले से,,

लगता है जैसे
कोई कारण नहीं
चलते रहने के
होने देने के
यहाँ तक कि कुछ भी तो
पर्याप्त और सक्रिय नहीं होता
यहाँ तक कि
'असफल' हो जाएँ
उसके लिए भी,,,

होता है ना 'आगत'
प्रवेशाकुल
किंतु नहीं होते हम प्रस्तुत
स्वागत थाल लिए,
नहीं होना चाहते हम शुमार
उसके अभिनंदन उत्सव में,
ऐसी मनस्थिति
जिसमें बस रोक देना चाहते हैं
सब कुछ
बस बैठ जाना चाहते हैं
जड़ हो कर,
नहीं है मौत यह, क़त्तई
यदि होती वह मौत
तो स्थायी होती है ना...
किंतु यह कुछ तो है
बिलकुल सन्निकट उसके,
लगता है मानो
समापन है
श्वासों के गमनागमन का,,,

करते हैं हम महसूस
एक रस्सा गर्दन से लिपटा
एक चाक़ू कलाई पर
गोलियों का कसेला सा स्वाद जिव्हा पर
करते हैं हम
कल्पना मात्र इनकी
हालाँकि स्वयं नहीं होते निश्चित कि
चाहते हैं ये सब
अंतर्मन से,,,

क्षणिक भवोद्वेग़ है
ये तो
जिन्हें ना जाने क्यों
पाते हैं हम स्वयं
अपने छद्म अस्तित्व सा,
(और)खोलते हैं द्वार
बिना थप थपाए
अहसासे कमतरी के
कुंठाओं के
अवसाद के,,,,

अभीष्ट हो हमारा
पहचान कर
स्वयं को
अपने वजूद को
अपने सारतत्व को
होकर सजग और स्पष्ट स्वयं में
होकर तत्पर
स्वीकारने सम और विषम को
सम भाव से
समस्त आग्रहों से परे...
पाने को ख़ुद को
और
जीने को स्वयं को,,,,

हीन भाव : विजया

शब्द सृजन : कमतरी
****************

हीन भाव (अहसासे कमतरी)
++++++++++++++++

सोचती हूँ कभी कभी
करूँ क्या मेरे उस हिस्से का
जो बार बार कहता है
चिल्ला कर
"मैं हूँ कुछ तो....मैं हूँ विशेष
मैं हूँ निराली...मैं हूँ मेधाशाली..,,

कभी कभी सोचती हूँ
कहलाती हूँ मैं
नन्हा सा तारा नभ में गुम
खोयी हुई चमक लिए
हज़ारों लाखों की भीड़ में...

सोचती हूँ कभी कभी
सर्वोत्तम विकल्प है मेरे लिए
लम्बा सा मौन...
क्यों परेशान होना
क्यों झंझट मोल लेना
कुछ भी करने के लिए,
क्या रखा है मेरे ख़ातिर
लोगों के
इस निर्दय शोर शराबे वाले
घने से झुंड में...

कभी कभी मैं मेरे अपनों को
किए डालती हूँ सशंकित
अपने होने के बारे में भी,
मैं क्यों ? अभी क्यों ? यहाँ क्यों ?
अस्पष्ट है इन सब के कारण मेरे लिए
इसीलिए
कुछ भी तो नहीं रह गया है
कहने को मेरे पास....

क्यों सुने मेरी ?
कहा किसने है उन्हें
मेरी परवाह करने को ?
यह जो दुनिया है ना
बहुत संगदिल,
कुछेक प्रतिभाएँ ही तो
चमक पाती है यहाँ,
क्या रखा है यहाँ मेरे लिए...

सोचती हूँ कभी कभी
क्या किया जाय
मेरे जीवन के उस भाग का
जो तरस रहा है..तड़फ रहा है
खिन्न है...उदास है
होकर ग्रसित हीन भाव से

कह दो ना
प्यार है तुम को मुझ से
दिलाओ ना मुझे भरोसा
कि तुम करते को परवाह मेरी
मत गिरने दो मुझे इन सघन अंधेरों में
कहो ना होंगे तुम संग मेरे
हर क्षण हर घड़ी
और दोगे साथ मेरा
हर हाल में....

Tuesday, 1 October 2019

बचपन और बचपना,,,



फ़र्क़ बस इतना है
बचपन और बचकानेपन में,
होता है एक
अन्तर की सहज गहरायी में
मीठा सा एहसास
दीखता है दूसरा
हिचकोले खाता हुआ
तैरता सा
'होने' की ऊपरी सतह पर
पहले मीठा फिर कसेला...

रहस्यमयता की धुँध : विजया

थीम सृजन : साहिल और समंदर
*************************

रहस्यमयता की धुँध....
++++++++++
खो गया है सागर
रहस्यमयता की धुँध में
नहीं बताता है अब वो
कुछ भी मुझ को
सीपियों में भी नहीं है
फुसफुसाहटें उसकी
नहीं है कोई प्रतिध्वनियाँ भी
किनारों से,
कैसे करें हम
वाद विवाद पवन से
कैसे करें हम
मोल तोल आकाश से,
क्या हुआ जो
पहाड़ के संग सट कर खड़े हम
देखते हैं ज़िंदगी और मौत को
और करते हैं
आलाप और विलाप भी...

भाग रहा है ना जीवन
काटता है चिकौटी भी
चीख़ता और चिल्लाता भी है
ज़ोरों दरवाजे भी थप-थपाता है
उपद्रव हैं जो नहीं खाते तरस कभी
कष्ट है जो नहीं हो पाते नरम कभी
सब कुछ तो होता रहता है दैंन दिन
कैसे कर पाऊँ नज़रंदाज़
इन सब को....

ऊब रहे होंगे आप
मेरे विराम रहित प्रलाप से
कर रही हूँ ना चुग़लियाँ मैं लगातार
महा सागर की,
मत सोचना
क्यों नहीं करते
लौंग वाली चाय पर
आजकल हम गुटुरगूँ ?
ऐसा नहीं है क़त्तई
कि नहीं पट रही इन दिनों हम में
बहुत कुछ है हमारे पास
एक दूजे को कहने और सुनने को
किंतु ये शब्द हैं ना....
ये तो बने हैं पानी से
और लिखे हुए हैं लहरों पर,
और....लहर का प्रवाह
जब जब होता है निम्न
लगता है ना समंदर है दूर
बहुत दूर
अपने तट से,
मगर हुए हैं क्या अलग कभी
साहिल और समंदर
अटूट है
परस्पर अस्तित्व जिनका....

(धन्यवाद साहेब याने मेरे आत्म सखा और जीवन साथी का जिसके  midas touch से यह रचना इस रूप में मैं प्रस्तुत कर पा रही हूँ. Mystic (रहस्यदर्शी) Mysterious(रहस्यमय)और Mystery (रहस्य/रहस्यमयता) को पल पल जीने के अनुभव और अनुभूतियाँ....परिभाषित जीवन के बीच अपने आप में एक विलक्षणता और विशिष्टता है....मेरी लगभग सभी रचनाओं में अमिट प्रेम के बिम्ब है जिसे पानी से बने शब्द बयान नहीं कर सकते.)

मौन में पले स्वप्न,,,

छोटे छोटे एहसास
==========

मौन में पले स्वप्न
होते हैं जब साकार
लगती है
सुखद पुनरावृति
उन पलों की
जो जीये गये थे
बिन बोले !

Sunday, 29 September 2019

पतवार और क़ुतुबनुमा,,,



पतवार और क़ुतुबनुमा,,,
############
थे अनजान हम
समंदर और साहिल की
हक़ीक़तों से,
चल दिए थे मगर
बहरी सफ़र पर
उस दिन ,
हुई थी मनसूबा बंदी  जिसकी
मुआशरे की घड़ी
औ ज़माने के कैलेंडर पर,
शुक्र है कर पाये
ये सफ़र हम मुकम्मल
हो के होशमंद पल पल,
पतवार जो थे हाथ में मेरे
और बता रही थी सिम्त तू
देख कर क़ुतुबनुमा,
गूँजती है आज भी तेरी आवाज़:
"बादबाँ खुलने से
पहले का इशारा देखना
मैं समंदर देखती हूँ
तुम किनारा देखना...."

(आख़री चार लाइंज़ परवीन शाकिर की ग़ज़ल से)

मायने :
बहरी सफ़र=समुद्री यात्रा, मंसूबा बंदी =योजना, मुआशरा=समाज, सिम्त=दिशा, मुकम्मल=सम्पूर्ण/समाप्त, क़ुतुबनुमा=क़म्पास/दिशा सूचक यंत्र, बादबाँ=पाल याने जहाज़ में लगाया जाने वाला पर्दा जिसमें हवा भरने से जहाज़ चलता है.

Tuesday, 24 September 2019

संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)


संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)
##################

नज़रिया दीवानी का
###########
दीवानी के सोचों में अस्तित्व बोध की तीव्र प्रबलता का agression और क्षोभ साथ साथ चलने लगता था. संस्कार में विनयशीलता और संवेदन उस प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति के साथ विरोधाभास के रूप में उभर आते थे. एक तरफ़ विद्रोह/क्रांति के भावों की तड़फ दूसरी ओर आदर्शों की स्वीकृति intellectual interpretetion के बिम्ब के रूप में घटित हो जाते थे, जैसे की उसकी यह नज़्म :

झुकना,,,,
########
बौनी होती जा रही हूँ मैं
समझौतों का बोझ ढोते-ढोते,
अस्तित्व कंकाल होता
जा रहा है मेरा,,,

झुक कर चलते-चलते
झुकी ही रह गई हूँ,
किन्तु झुकना हमेशा
हार नहीं होता,,,,

सलीकामंद शाख़ों का
झुकना ज़रूरी है
जब परिंदे घर लौटें,,,

==========================

नज़रें 'वि' की
########
बार बार पढ़ा था मैंने उसके अल्फ़ाज़ को....उसको देख पा रहा था अपने ही सोचों के भँवर में फँसा हुआ. सोचता था चुप रहूँ या कुछ कहूँ....अंदर से आवाज़ आयी....कहना तो होगा क्योंकि कभी कभी ऐसी बातें दीवानी अपने असमंजस और उलझन के बीच मेरे reaffirmation की अपेक्षा के साथ भी कर बैठती थी,इसे सहज मानवीय स्वभाव कहूँ या उसकी उत्सुकता. चलिए मैंने अपनी 'ज्ञान' झाड़ने की कुलकुलाहट कुछ ऐसे मिटायी :

संतुलित जीवन,,,
############
संवेदना
सौहार्द
संस्कारमयी स्निग्धता ने
कर दिया है
तुम्हारे क़द को ऊँचा
अपनों के बीच
ना जाने क्यों
माप रही हो ख़ुद को
समझ कर बौना,,,
थोपी हुई धारणाओं को
जीना हो सकता है
बौझ समझौतों का
किन्तु
चुनी हुई प्रतिबद्धतायें
होती हैं अलंकार हमारे,
कहा था ना तुम्हीं ने
होता है अनुभूति का सम्बंध
घटना से कहीं अधिक
मन स्थितियों से,,,

ज़रूरी है झुकना भी
लोग वरना
गुज़र जाएँगे पास से
पत्थर समझ कर,
झुकते हैं जो
साथ सजगता के
नहीं होती बेबसी उनकी
जी लेते हैं वो हुनर अपना
हर रिश्ते को निबाह कर,,,

सच है झुकती है
फलों लदी डालियाँ ही
मगर नहीं है लाज़िमी
झुक कर बना देना
खुदा किसी को,
नहीं है वांछित कोई भी चरम
एक संतुलित जीवन के लिए,,,

नसीहत नहीं
अनुभव है ज़िंदगी के
जीने का मंत्र है
शब्द त्रय
चेतनता, स्पष्टता और स्वीकार्यता,,,

_________\\\_______

(Note : Deewani's version is an adapt of a poem of Vidya Bhandariji : With thanx and regards)





Sunday, 22 September 2019

निमंत्रण गहरायी मापने के लिए,,,(दीवानी सीरीज़)



निमन्त्रण : गहरायी मापने के लिए,,,(दीवानी सीरीज़)
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बहुत चाहती थी मुझे... प्रेम और आदर दोनो ही बेइंतहा...लेकिन
Egoist No. 1....मैं राजा हूँ तो बस उसका बनाया ही 😊नहीं तो कटु आलोचना....हमारे साम्राज्य की Queen The Empress जो थी वो, यद्यपि उसे Princess (राजकुमारी) कहलाना ज़्यादा पसंद था. कई रंग थे दीवानी के, देखिए ना उस दिन कुछ मनचाहा ना हुआ और हमें 'व्यर्थ' साबित कर दिया. रूपकों के प्रयोग में महारत !

व्यर्थ : बात दीवानी की
#############
समुद्र हुए तो क्या हुआ
प्यास किसी की भी तो
बुझाई नहीं,
समेट कर ख़ुद में
बेहद खारापन रखना,
बेतरह फैल कर
विशाल होना,
ऊँह !
अक्खा जीवन तो व्यर्थ,,,

( Adapt of a poem by Vidya Bhandariji  , with thanks and regards)

कैफ़ियत मेरी 😊 :
########
मैं भी पक्का कलमबाज़ और कलाबाज़.....जता दिया कि मैं व्यर्थ नहीं हूँ.....तहे दिल से वो भी मानती थी, ऊपर वाली कविता exactly किस बात से ट्रिगर होकर घटित हुई उसका फ़िक्र भूलकर मेरे जवाब का लुत्फ़ लीजिए ना.

चले आना,,,
######
माना कि मैं खारा हूँ
मगर अक्खी दुनिया से न्यारा हूँ,
जलाकर ख़ुद को
बन जाता हूँ मैं ही बादल
घूमता हूँ फेरीवाले के मानिंद
देने को पानी
सींचने खेतों को
बुझाने प्यास प्राणियों की
करने शीतल तप्त धरा को,,,

कहाँ हूँ मैं विशाल
समाया हूँ मैं तो एक बूँद में,
व्यर्थता और उपादेयता
हुआ करती है ना सापेक्ष
आँखों देखी भी
होती नहीं निरपेक्ष
निमंत्रण है चले आना
मापने मेरी गहरायी को,,,

ना जानो तुम ना जाने हम : विजया


ना तुम जानो ना हम....
+++++++++++
ना तुम जानो ना हम,सच हो या भ्रम
मंज़र कितना ख़ुशगवार और प्यारा है
मासूम सा ये जुमला ना जाने कितनों के
हँसी ख़ुशी से जीने का सहारा है...

मिले थे तुम हम से,मिले थे हम तुम से
अनजान थे हम दोनों इश्क़ ओ प्यार से
हुआ 'वो' क़ुदरतन सा था बीच जो अपने
बिना किसी मुकालम: ओ इज़हार से....

वो तुम्हारा मेरी पसंद की चटपटी खिलाना
कुछ भी दुःख लागे,बना बातें मुझे बहलाना.
ढाल सा संग रहना, कभी ख़ुद से ना झगड़ना
तुनक मिज़ाजी भूला कर मेरी, कैसे ही मना लेना...

वजह बेवजह वो मेरा इठलाना और इतराना
भूलाकर दर्द अपना मुझे देख कर मुस्कुराना
थाम कर हाथ साथ चलना, राहें सही दिखाना
जो भी हो बहुत मुश्किल करके उसे दिखाना...

बालपन के ये किस्से हसीं इबारतों से
अमिट से लिखे हैं सफ़हात जिंदगानी पे
हर घड़ी हरेक लम्हा वारि जाऊँ मैं दीवानी
इश्किया हुनर और मासूम तेरी मेहरबानी पे...

बिन बोले सब कुछ समझ जाते हो तुम
ख़ामुशी से बहुत कुछ कह जाते हो तुम
मेरी हर चोट को दिल से सहलाते हो तुम
सच कहूँ आज भी वैसे ही बहलाते हो तुम...

मख़मली नरमी देती सुकुने रूह मुझ को
छुअन तेरी जिस्मानी, रबानी तफ़ीह मुझ को
तेरी हर नज़र में नज़र आये मेरा महबूब मुझ को
नसीहत तुम्हारी में दिखे आला मुअल्लिम मुझ को...

तेरे हर ख़श्म में पोशीदा, मेरी ही भलाई
दिखती है उसमें चोटें जो अपनों ने है पहुँचाई,
मत जाना आँसुओं पे वो थकन ओ दर्द मेरा
हर बात अपनी में ज़ाहिर मेरी तेरी आश्नाई...

ख़ज़ाना तेरे प्यार का कितना अकूत है
तेरे जीने का हर पैमाना इसका ही सबूत है
जब भी चाहूँ, मुझ को तुम अपना हाथ देना
साँस आख़री तक बस यूँ ही साथ देना...

(मुकालम: =संवाद, dialogue. सफ़हात=पृष्ठ. रबानी=divine, ईश्वरीय. तफ़ीह=उपहार. मुअल्लिम=mentor, शिक्षक, मर्गदर्शक. खश्म=कोप,anger.
पोशीदा=छुपा हुआ. आश्नाई=मैत्री. अकूत=अगणनीय.)

चलते चलते :
😊😊😊
कृष्णधर्मा में संगी की साँची ये दास्ताँ है
नहीं है ये चालीसा, ज़िंदगी से बाबस्ता है
जीया है हम दोनों ने, जी आज हम रहे हैं
कहे अनकहे साझे सब ख़ुशी ओ ग़म रहे हैं 🙂

Thursday, 12 September 2019

कुछ अबूझ प्रश्न : विजया

स्वांत: सुखाय
***********

कुछ अबूझ प्रश्न.....
++++++++
(पिछले सप्ताह आसाराम के वक़ील साहब ९४ की उम्र में इस दुनियाँ से कूच कर गए. असाधारण प्रतिभा के स्वामी थे वक़ील साहब...बहुत कुछ पढ़ा उनके बारे में....जाने वाले की प्रशंसा सफल व्यक्ति के लिए सभी सीमाएँ तोड़ देती है ऐसा लगा...कुछ अबूझ प्रश्न है मेरे...)

****************
कुछ तो विशिष्ठ था उन में
जो कर पाए थे हासिल
इतनी बड़ी ऊँचाईयां
क्या था ऐसा ?

पढ़े गए हैं क़सीदे
संघर्षशीलता
सुस्पष्टता
कर्मठता
पेशे के प्रति समर्पण के
किंतु कितने ही
विरोधाभास और असंगतियाँ ?

कभी इस दल को नवाज़ा
कभी उस दल का पल्ला पकड़ा
एक ही तरह के दो इंसान
एक के लिए पसंदगी
दूजा नापसंद
कैसी थी स्पष्टता ?

देश से अगाध प्रेम का दावा
दलीलें बचाने के लिए
देशद्रोहियों और देश के दुश्मनों को
कहाँ थी सीमा रेखा ?

सार्वजनिक जीवन में
प्रामाणिकता की पक्षधरता
विधान के प्रति आस्था का दावा
प्रतिनिधित्व प्रकट भ्रष्टाचारियों
विधान प्रवंचकों का
कैसी थी यह आस्था ?

कहने को कह दिया
दोनों बाख़ुशी साथ थी
प्रश्न किंतु अनुत्तरित
क्या थी वास्तविक अपर्याप्तता जो
करना पड़ा था गोपन विवाह
सहकारी के संग ?

प्यार हुआ था किसी से
सम्बंध बन जाते थे
हर सहमति दात्री से
बदलते साथी कार्यक्रम चलता रहा
कैसी थी प्रतिबद्धता ?

कामयाबी
जीवन के किसी हिस्से की
नहीं बना देती फ़िलोसोफ़ी
पूरे जीवन की,
नहीं इनकार ख़ासियतों से
मगर ढकना ढांपना कमियों को
सफलता के लाबादे में ये कैसा ?

ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता....


ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता,,,
#################
खुली आँखों में  ख़्वाब अब नहीं आता
मेरे ख़त का कोई जवाब अब नहीं आता,,,

चाहत की राहत गुज़र गई ऐसे
मेरे दीदार का इज़्तिराब अब नहीं आता,,,

बातें मोहब्बत की बेमानी हुई अब तो
रात की तीरगी में महताब अब नहीं आता,,,

भूल चुका वो अहद किये सारे यारब
बेगैरत चेहरे पे हिजाब अब नहीं आता,,,

मायने अशआर के मुख़्तलिफ़ हुए देखो
लबे साक़ी पे जामे शराब अब  नहीं आता,,,

(दीदार=दर्शन, इज़्तिराब=व्याकुलता/बेचैनी, तीरगी =अँधेरा, महताब=चंद्रमा, आहद-वादा, बेग़ैरत=लाज रहित, हिजाब=पर्दा, आशआर=शेर-couplets का बहु वचन, मुख़्तलिफ़-उलट, साक़ी=सुरा बाला)

Sunday, 25 August 2019

प्रश्न रुक्मिणी के ऋषि दुर्वासा से : विजया




प्रश्न रुक्मिणी के ऋषि दुर्वासा से....
++++++++++++++++++
ऋषि थे आप तो
ज्ञाता शास्त्रों और  धर्माचार के
मार्गदर्शक समाज के
विद्वान ब्राहमण त्राता सर्व पाप के
फिर भी ऋषिवर !
क्रोध इतना ?

आये थे विवाहोपरांत
हम नवदम्पति
करने निमंत्रित स्वगृह आपको
देने को आदर हृदयत:
पाने को आशीर्वाद,
किंतु सहमति भी आपकी
ऋषिवर !
थी सशर्त क्यों ?

देने को मान
आपकी मनसा को
सम्मान स्वप्रेमी के वचनों को
निबाहने को सम्बंध जीवन साथी संग
जुत गयी थी मैं कोमलाँगी
अश्व का स्थानापन्न बन रथ में
हुए थे आरूढ़ सदम्भ आप
किंतु नहीं कचौटा था क्या
ऋषिवर !
पवित्र मन आपका ?

खींचे जा रहे थे रथ हम युगल
लथपथ स्वेद में
सहते हुए वेदना निरर्थक श्रम की,
लगी थी तीव्र प्यास मुझ को
देखा ना गया था दर्द मेरा प्रियतम से...
बहा दी थी कुरेद कर धरा को
अपने बलिष्ठ अंगुष्ट से
शीतल गंगधार श्रीकृष्ण ने
पहुँची थी अनायास जो
मेरे मुख और कंठो तक,
ऐसे में कैसे पूछ पाती
ऋषिवर !
आपको मैं जल हेतु ?

असीम अहंकार
दमन से उपजी कुंठाएँ
परिलक्षित थी आपके व्यवहार में
नहीं सोचा था तनिक भी आपने
देने में अतिभार रथ चालन का
हम निरीह युगल पर,
शाप हमें दीर्घ वियोग का
भूमि को भी बंजर योग का
कैसे दे पाए होंगे आप
ऋषिवर !
होकर नितांत संवेदन शून्य ?

मुझ स्त्री ने  ही की थी घोर तपस्या
पाने को मुक्ति वियोग श्राप से
किंतु फिर भी
भुगत रही है दंड आज भी
प्रस्तर आकृति मेरी
प्रिय मंदिर से दूर रह कर,
कैसा है यह न्याय
ऋषिवर !
आपका और आपकी
इस छद्म उदारमना संस्कृति का ?

बहु आयामी,,,,



बहु आयामी,,,,
########
बहुआयामी है ना कृष्ण !
बता तो दे कोई मुझे 
मानव ऐसा 
जो नहीं पड़ेगा कृष्ण प्रेम में,
होते ही तनिक सा भी 
एहसास प्रेम का
खोज लेगा वह 
कुछ ना कुछ प्रेम योग्य 
माधव के व्यक्तित्व में
वृहत गहन कृतृत्व में,
कर सकता है साधु भी प्रेम उससे 
असाधु भी 
संसार से भागा विरागी भी 
महारास नृत्य का रसिक अनुरागी भी
अपना कर निस्पृहता स्व अंतर में,
वाद्यवृंद है कृष्ण मुरलीधर
बज रही है जहाँ 
प्रत्येक वाद्य से धुनें अपनी अपनी
जो जिसको भाये वही वाद्य हो जाये
प्रेमपात्र उस विशेष प्रेमी का,
होता है एकांगी 
गुण विशेष को चुन कर 
किया गया प्रेम,
प्रेमेगा समग्र संपूर्ण कृष्ण को 
कोई बहुआयामी मानव या मानवी ही 
जो हो वैसा ही 
जैसा अच्युत छलिया मधुसूदन !

वद्यवृंद =ओरकेस्ट्रा

Thursday, 22 August 2019

ना जीना हो सहम कर,,,,


ना जीना हो सहम कर,,,,
###########

पंछी यह अब थक गया
फलक में उड़ उड़ कर
मिल जाए शजर कोई
जो बैठे वहाँ ठहर कर,,,

तपन नहीं हो सूरज की
ना अंधड़ के हो थपेड़े
उलझे से ना हो बादल
हो छांव शीतल सुख कर ,,,

पाया था बहुत उस ने
दुई हाथ से लुटाया
बेमानी सा लगे सब
टुक दूर से निरख कर,,,

ख़ुद के लिए नज़र हो
हो ख़ुद के ही नज़ारे
बस डूबना हो ख़ुद में
जीना ना हो सहम कर,,,

बहरे-मव्वाज झूठा
सच बूँद एक छोटी
हो जाती जो है मोती
एक सीप में उतर कर,,,

नाकर्दा गुनाही की
सज़ा कर दी जो मुक़र्रर
क्या मिला बता तुझे यूँ
मेरी पाँखों को कतर कर,,,

बागे बिहिश्त से मुझ को
हुक्मे सफ़र दिया क्यों
कारे जहाँ दराज़ है
अब तनहा तू बसर कर,,,

(आख़री शेर इक़बाल के एक शेर का adaption है)

(मायने : शजर=पेड़/tree, टुक=ज़रा, बहरे-मव्वाज=मौजें मारता हुआ समुद्र/stormy sea
शदफ=सीप/shell, नाकर्दा गुनाह=अपराध जो नहीं किए गए, जज़ा=बागे बिहिश्त=स्वर्ग/paradise, कारे जहाँ=सांसारिक कार्य/day to day work
दराज़=लम्बे/long)

Tuesday, 20 August 2019

दास्ताँ बंद लिफ़ाफ़ों के : विजया


दास्ताँ बंद लिफ़ाफ़ों की...
++++++++++++++
याद है
उस दिन चाय पर चर्चा में
एक नया ही विषय आन खड़ा हुआ था
पूछा था मैंने :
"तुम्हारे मन में अपने स्त्री संगिनी  की
क्या छवि है ?"

उत्तर देने के बजाय
दाग़ दिया था तुम ने भी सवाल:
"क्या तस्वीर है तुम्हारे दिलो दीमाग में
अपने मर्द पार्ट्नर की ?"

तय हुआ था
भूलकर यह कि
हम 'Childhood Friends' हैं
अब मियाँ बीवी भी हो गए है,
इन सवालों को डील करेंगे दोनों
पूरी पूरी ईमानदारी से...

लिखा था तुम ने :

"मेरी स्त्री तिलोत्तमा सी सुंदरी हो"
नयन नक़्श, शारीरिक सौष्ठव का
रोचक श्रिंगारिक वर्णन कर गए थे तुम
और यह भी
बुद्धिमति हो, ज्ञानवती हो, विनयशील, विचारवान
व्यवहारकुशल हो,मृदुभाषिणी हो,
कल्पनाशील हो, चंचल रोमांटिक कामिनी हो
घर ओफिस दोनो को देख सके, सोचों की गम्भीर हो
जो समझे मुझ को,मंज़ूर हो जिसे मेरी
परम्पराओं को समझे और आधुनिक भी हो
हर हाल में साथ दे मेरा....
और बंद हो गया था मज़मून लिफ़ाफ़े में...

मैंने लिखा था :

यूनानी देवों सा शारीरिक सौष्ठव हो
तीखे नयन नक़्श, रण बाँकुरा हो
शक्तिशाली हो, मेधावी हो, धनी हो
रोमांटिक हो, घूमने फिरने का शौक़ीन हो
दिलदार हो, उदार हो, वक्तृत्व कला में माहिर हो
मेरी वैयक्तिकता को जो स्वीकारे
मेरी स्वतंत्रता में समर्थन दे
मेरे लिए जग से लड़ ले
जो अपना सारा प्यार मुझ पर लुटाए
मेरे सहज नारीत्व को समझे,
अपनाए और संतुष्ट करे
हर हाल में साथ दे मेरा....
और बंद हो गया था मज़मून लिफ़ाफ़े में...

खुले थे लिफ़ाफ़े...
उभर कर आयी थी दो तस्वीरें,
तुम ने मैं ने मिलकर कहा था एक साथ :
अरे ये तो चित्र है किसी चित्रकार की कल्पना से उभरे
ये तो चित्र हैं लाखों स्त्रि-पुरुषों के
मिला जुला कर
किसी एक के नहीं,
सब के सारभूत है ये चित्र तो
आँख किसी की, नाक किसी का, होंठ किसी के
बाल किसी के, रंग किसी का
बल बुद्धि व्यक्तित्व किसी का...

नहीं मिलेंगे ऐसे पात्र
कहीं भी खोजने पर
देख पाते हैं ऐसे किरदार
कवि या चित्रकार
अपने ही बिखरे से ख़यालों में
और डाल देते हैं इन सब को
अपनी अपनी कृतियों में
नहीं करना है हमें भरोसा
इन 'ऑल इन वन' परिकल्पनाओं का
नहीं होना है हमें
कुंठित, लुंठित और असंतुष्ट...

सब से बड़ी ख़ुशी है स्वीकारने में
सब से बड़ी बॉंडिंग है अपनाने में
आओ पी लें चाय
और जी लें उस प्यार को
नहीं करता है जो भेद
पनपता है जो साथ साथ
दर्द और ख़ुशी जीने में...

Thursday, 15 August 2019

ब्रेन वाश आबादी का : विजया


ब्रेन वाश आबादी का ...
++++++
सब ख़ुश हैं
मैं भी ख़ुश हूँ
करके स्वीकार
मना रहीं हूँ जश्न
'आज़ादी'का,
ना होती तुलना
यदि स्थितियों की
कर पाते कैसे हम साबित
नई ग़ुलामी को 'आज़ादी'
करके ब्रेन वाश
आबादी का.....

Monday, 12 August 2019

प्रस्तर प्रवेशनीय : विजया



प्रस्तर प्रवेशनीय...
++++++++++
माना कि तुम हो
एक पाषाण
अचल, दृढ़, निर्लिप्त,
कभी कभी निष्ठुर भी,
किंतु हुआ करता है ना
हर प्रस्तर भी प्रवेशनीय
समा सकता है जल
उसके अंदर भी
किसी न किसी बहाने,
बना देता है
बालुका चट्टान को,
और हो जाता है ना
वही दृढ़ शिला खंड
नरम और लचीला
अविभेध्य कणों वाला...

Wednesday, 7 August 2019

जीने के बहाने खोजता है,,,,



जीने के बहाने खोजता है,,,
###############

कभी आधे सच, कभी झूठ सोचता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

तारीकी का है आलम, और वो डरा डरा सा
घुटन से परीशां,ग़म से भरा भरा सा
तपिश अगन की में,ख़ुद को ही झोंकता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

पीकर अश्क़ अपने बौझिल हुआ है जीना
शाम या सवेरा बस लहू जिगर का पीना
ख़ुद की ही गाँठों को बाँधता खोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

खोले किवाड़ दिल के ,दुश्मन बसा लिये हैं
हर जुज़्बे ज़िन्दगी पर पहरे बिठा दिए हैं
अमृत भरे जीवन में वो ज़हर घोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

टीसते हैं ज़ख़्म सारे, दिये थे जो अपनों ने
एहसास पिस रहे है, संजोये थे जो सपनों ने
जग से हुआ है गूँगा ख़ुद ही से बोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

भटक रहा सहरा में पानी तलाशता वो
अपने ही पैरहन पर कीचड़ उछालता वो
टूटी तराज़ूओं में जज़्बात तोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

बहती नदिया शुष्क किनारे : विजया

थीम सृजन : बहती नादिया शुष्क किनारे
*******************************

बहती नादिया...
++++++++
नहीं थोपे हैं किनारे
बाहर से किसी ने
बनाये हैं नदिया ने ही
खुद के लिए
ताकि बिना भटके
चल कर सुचारू रूप से
पहुँच सके अपने प्रवाह से
वह समंदर तक
करने को सम्पूर्ण विलय स्वयं का...

बिना होश,
स्पष्टता और स्वीकार्यता के
खोजने लगती है नदिया
जब भी कोई तीसरा किनारा
होता है जो केवल उसकी ही
कपोल कल्पनाओं में
नितांत परे वास्तविकताओं से
सर्वथा विपरीत अभीष्ट के,
हो जाता है वही
हेतु विभत्स उपद्रवों का...

हो कर उत्तेजित
उबल कर उफन कर
होकर प्रभावित बाहरी ताक़तों से
या अतिवृष्टि जैसी आकस्मिक घटनाओं से
या खोल दिए जाने पर मानव निर्मित बाँधों के
कर देती है अतिक्रमण
अपने द्वारा निर्धारित
अपनी ही सीमाओं का...

वजूद किनारों का
रख रखाव उनका
करता है निर्भर नदिया पर ही,
होकर उद्वेलित ना जाने क्यों
तोड़ डालती है जो
अपने ही तटबन्धों को...

बदल जाए रूख या जगह
नहीं रह सकती
नहीं बह सकती
कोई भी नदिया कभी भी
बिना दो किनारों के...

शुष्क किनारे...
++++++
सूखा देती है
अनावृष्टि नदिया को
कम पिघलना पहाड़ों की बर्फ़ का भी
कर देता है मंद प्रवाह नदी का
सामान्य सा दर्शन है यह
शुष्क किनारों का...

हो जाती है सरिता ऐसे में मौसमी
या खो देती है वेग अपना
या मिट ही जाता है अस्तित्व उसका
लुप्त नदी और शुष्क किनारे
बने रहते हैं कुछ अरसे तक
हो जाते हैं फिर एक मेक
समतल ज़मीन के साथ...

(नदिया याने व्यक्ति.….दो किनारों से आशय है तन और मन या कहें अंतरंग और बहिरंग की संतुलित कोड ऑफ कंडक्ट....तीसरा किनारा है भाव और विवेक दोनों से रहित अराजकता.)

अना,,,,

छोटे छोटे एहसास
==========
हो जाए ये अना
बग़ीचे के अमरूदों सी,
पक जाए भरपूर
और
गिर जाए
ख़ुद ब ख़ुद !

फ़र्क़ मर्द औरत का - खरी खरी : विजया

स्वांत: सुखाय
========

फ़र्क़ मर्द औरत का : खरी खरी
*************************
(सविता गुप्ताजी की कविता पर चिंतन और विमर्श से उपजी एक सहज रचना...सविताजी की कविता यहीं ग्रुप में  अन्यत्र शेयर की है मैं ने--https://www.facebook.com/groups/1564062830539926/permalink/2478678039078396/)

+++++++++++
सवाल हैं ये
पीछली पीढ़ी की
जीवन शैली के
किंतु सटीक है
कल के लिए भी
ज्वलंत है आज के लिए भी....

बड़ी विचित्र है यात्रा
इन सवालों की
स्वयं से पूछा जाय तो
हो सकती है
अनुभूति इनकी व्यर्थता की,
पूछा जाय अगर औरों से तो
द्योतक है हमारे ही
निर्बल स्वविश्वास के
या है यह कोई दुस्साहस भरा षड्यंत्र
स्वयं की कमज़ोरियों को ढाँपने हेतु
बहाने खोजने का....

सदियों से चली आयी
परिभाषाओं को
आज हम ही करने लगे हैं इस्तेमाल
अपने स्वार्थ पोषण हेतु....

माँग भरने की माँग
उनसे अधिक होती है हमारी
वैसे आजकल ये सब
बन कर रह गए हैं
महज़ फ़ैशन स्टेट्मेंट की महामारी.....

नर नारी मैत्री आज की नहीं
आदि काल ही हक़ीक़त है
द्रौपदी और कृष्ण की मित्रता
प्रतीक है
स्वस्थ संबंधों और परस्परता की,
है यदि कोई रिश्ता
परे वैचारिक संकीर्णता और द्वेष से
स्वीकार्य है अंतर्मन से जो स्वयं को
स्वीकारेंगे उसे कालांतर में
होंगे जो भी हृदयत: अपने,
शेष दुनिया के लिए होगा बस समझना
"क्या कहेंगे लोग
सब से बड़ा यह रोग...."

सौंदर्य है ईश्वर प्रदत्त उपहार
सजना संवरना रख रखाव भी है
ईश स्तुति तुल्य
नर और नारी दोनों के लिए,
होना अन्नपूर्णा मौलिक स्वभाव है स्त्री का
होना चाहिए हमें गर्व उस पर,
साझा शब्द होता है लागू दोनो पर
जो भी साझेदार करता नहीं सहयोग
वज़न उठाने में
कराना होता है हमें ही उसको
एहसास उसका,
नहीं बदल सकता
हमारा प्यार और तकरार यदि
फितरत उसकी
बदल सकते हैं ससम्मान
हम अपनी ही सोचों को
करते हुए पूर्ण सुरक्षा अपने स्वाभिमान की,
नहीं आते हैं यथेष्ट परिणाम तब भी
तो लेने होते हैं उचित कड़े निर्णय
करके सक्षम स्वयं को.....

सदियों का अनूकूलन और कुंठायें
हावी है हम स्त्रियों के दिलों और दीमागों पर
वजह यही तो है स्त्री के स्त्री के प्रति
प्रतिक्रियात्मक दुर्भाव की
जिसे देता रहा है है हवा
पुरुष प्रधान समाज
नाना प्रकार के निर्वचनों और प्रतिपादन से,
होशमंदी स्पष्टता और स्वीकार्यता
दिला सकती है निजात हमें
जलन और एहसासे कमतरी से,
कर सकती है दूर सभी छद्म विकारों को
जो नहीं है 'एकाधिकार' 🤣केवल स्त्रियों का
क्या नहीं पाई जाती ये सारी असंगतियाँ
पुरुष व्यवहार में भी ?

तलाशते हैं अवसर संसर्ग के
पुरुष और स्त्रियाँ दोनो ही,
जैविक सत्य भी जुड़ा है दोनों से एक सा
तोहमत लगा कर केवल मर्दों पर
करना साबित ख़ुद को दूध का धुला
है नितांत निराधार और असंगत...

स्वयं की नकारात्मक सोच
सतही संवेदनाएं
बनती है सबब स्वयं की घुटन का,
पीड़िता और शहीद दिखाने की फ़ितरत
वजह है असमंजस और छटपटाहट की
सम्भव है मुक्ति सर्वथा
स्वयं और पर की क़ैद से
अपनाएँ यदि स्त्री
रीति नीति समग्र सोचों की....

चले जाने की बात करते हो : विजया


चले जाने की बात करते हो...
++++++++++++++++

राज छुपाने की बात करते हो
किस बहाने की बात करते हो...

ज़िंदगी हो चली एक हक़ीक़त
क्यों फ़साने की बात करते हो...

ठहरे हो कब हर लम्हा मौ संग
यूं चले जाने की बात करते हो...

जीने लगे है खुद की तरह हम
फिर जमाने की बात करते हो...

लील लिया सब कुछ जिसने
उसे भूल जाने की बात करते हो...

ना वो शम्मा, ना तुम परवाना
जलने जलाने की बात करते हो...

नाकाफी क्या धड़कन दिल की
प्यार जताने की बात करते हो...

Monday, 22 July 2019

विदाई,,,,,


विदाई,,,,
#####
कहाँ हो पाता है
विदा पूरी तरह कोई
सत्य है या भ्रम
एक असमंजस ही तो है
विदाई,,,

शाश्वत सत्य  है
मिलना,बिछुड़ना फिर मिलना
जन्म जन्मांतर के सम्बन्धों का
अपरिहार्य प्रतीक है
विदाई,,,

जन्म के दौरान
और
मृत्यु से ठीक पूर्व
जुड़ाव का होकर सह प्रतिपक्ष
हो जाती है घटित
विदाई,,,

होने लगे प्रेम जहां
परिभाषित और विभाजित
दोनों दिखते किनारों से परे
होती है एक अदेखा किनारा
विदाई,,,

सबब है यह भक्ति का
खोले हो कर तिरोहित
द्वार परम मुक्ति का
मिलन का ही रूप है एक
विदाई,,,

Tuesday, 16 July 2019

ये दर्द मेरा लज़्ज़ते अरमान हो गया,,,,,



ये दर्द मेरा लज़्ज़ते अरमान हो गया,,,,
#############
अपना ही अक्स आईने में अनजान हो गया
खुद के ही घर में यारों मैं मेहमान हो गया,,,

ज़ख़्म दे रहा है राहत ख़ुशनुमा यादों की
ये दर्द मेरा लज्जते अरमान हो गया,,,

कहते थे मेरे अज़ीज़, जुदा यक शख़्स हूँ मैं
मेरा आम होना ही आज मेरी पहचान हो गया,,,

सीख लिया है सलीक़ा जज़्बात छुपा लेने का
दिले सदचाक मेरा दिले शादमान हो गया,,,

कहते रहे ग़ज़ल ख़ुद ही की वुसअत में
सफ़े रंजो ख़ुशी के जुड़े ,दीवान हो गया,,,,

(लज्जत=सुखद अनुभव, दिले सदचाक=भग्न हृदय, दिले शादमान=प्रसन्न हृदय,वुसअत=विस्तार, सफ़ा=पृष्ठ/पन्ना, रंज=दुःख, दीवान=ग़ज़लों का संग्रह)

कोंपल दर्द की,,,,,,: विजया


कोंपल दर्द की....
++++++++
नहीं भरता है वक़्त
घावों को,
ढाँप देता है बस उन्हें
एक लम्बी सी चादर से
देने को भुलावा
चोट के बिसर जाने का,
हो जाता है भ्रम
उस पीड़ा को भूल जाने का
गाड़ दिया गया होता है जिसे
किसी समझौते के तहत
बहुत गहरे में,
देख लो ना मगर
फूट आयी है आज
यह कोंपल दर्द की....

Monday, 1 July 2019

ना जैय्यो कोई क़रीब : विजया



ना जईय्यो कोई क़रीब !
+++++++++++++
चमचमाती नज़रें
तवस्सुम ललचाती सी
कहकहे हैं शैतानी
मनसूबे बेहद घिनौने
एक निगाह खोटी
छीन ले जो बहोत कुछ...

लबों पर अहद
ज़ेहन में है जद्दोजहद
हरदम अना है हावी
बन कर
शख़्सियत की चाबी
बेपरवाह है अंजाम से
गँवा दे जो सब कुछ...

हल्का ए नूर नक़ली
काले अंधेरे असली
मुस्कान के दिखावों में
छुपे हैं गुनाह कितने
इश्क़ कहूँ के फ़रेब
ना जईय्यो कोई क़रीब  !

(अना=अहम/ego, अहद=वादे/promises, हल्का ए नूर=चमक का गोल चक्कर/halo)

हर मौसम बाग़ में हमारे : विजया


हर मौसम बाग़ में हमारे...
+++++++++++
उग आए हैं बीज
जो निहाँ थे राज होकर
गहराई में तुम्हारी,
है लबों पर मुस्कान तुम्हारे
उदासी हैं मगर मर्कज़े चश्म में,
झाँकते हो तुम
जब जब मेरे आइना ए दिल में
मुड़ जाते हो बरबस
पाकर कोई अजनबी अपने ही अक्स में...

जानती हूँ मैं हाल
तुम्हारे हर पत्ते और  बूटे का
हर जुड़े और टूटे का,
सहलाते हुए हर चोट
समझाते हुए हर खोट
मिला कर क़दम से क़दम
खोजती रहती हूँ दिन रात
उन गुमशुदा गुलों को
जो खिला करते थे हर मौसम
हमारे बाग ए ज़िंदगानी में...

(निहाँ=छुपा हुआ, मर्कज़=केंद्र,चश्म=आंख)

Friday, 21 June 2019

तरह तरह के चेहरे,,,,,,,


तरह तरह के चेहरे,,,
############

लिखा है मेरी क़िस्मत में
देखूँ मैं असली चेहरे
चलता हूँ साथ लेकर
तरह तरह के कई चेहरे,,,,

एपिसोड -१
********

जसुदा,,,
#####
पहनाया था मुखौटा ऐसा
बना कर औलाद किसकी
देखी जो हक़ीक़त
ज़मीं पावों तले थी खिसकी,,,,

पहने माँ बाप के चेहरे
दम भरते थे जो ममता का
ख़ुदगर्ज़ मकसदों से
करते थे हिसाब गुजश्ता का,,,

देखा किया वहीं पर
एक चेहरा था खुदा सा
जो अंदर वही था बाहिर
कुछ भी न था जुदा सा,,,

उस मूरत जसुदा की ने
अपनाया था यक ग़ैर को
उसी का था ये जो माद्दा
पाला था किसी शेर को,,,,,

असली नक़ली की बातें
कौन जानेगा उस से बढ़ कर
दुनिया को देखता वह
अस्प अपने ही पे चढ़कर,,,,

गजश्ता=विगत, अस्प=घोड़ा

स्क्रीन...

स्क्रीन,,,,,
#####
मैं,
स्क्रीन मल्टीप्लेक्स का,
कर लेता हूँ तस्लीम
जस का तस
हर रंग, किरदार और कहानी को,
रहता हूँ मगर सफ़ीद ओ सुकूनज़दा
हर खेल के दरमियाँ और
ख़त्म हो जाने के बाद भी,,,,

तस्लीम=स्वीकार

स्वयं स्वयं को बूझ गया,,,,,



स्वयं स्वयं को बूझ गया,,,,,
############
जब जब टूटा सूत्र मेरा
गाँठे दे दे कर जोड़ लिया
जटिल ग्रंथियों में बंध कर
'मैं सूत्रधार' ,मैं उलझ गया,,,,,,

अँधियारों में था भटका
झाड़ झंकाड़ में फंसा था मैं
चोटें पत्थरों की ख़ूब सही
फिर रस्ता अपना सूझ गया,,,,,

निरपेक्ष नहीं कुछ जीवन में
सापेक्ष सत्य है जीवन का
चुनना जब छोड़ दिया मैंने
भेद मैं सारे समझ गया,,,,,

रिश्ते नाते दुराव लगाव
थी सीमाएँ सब की अपनी
जब से असीम से जुड़ पाया
स्वयं, स्वयं को बूझ गया,,,,

ख़ूबसूरती रिश्ते की,,,,(अनुवाद)


========
जार्ज एलीयट की एक रचना का हिंदी भवानुवाद मेरे द्वारा

ख़ूबसूरती रिश्ते की ,,,,
###########
आह ! चैन
नाक़ाबिले बयां सुकून
महफ़ूज़ महसूस होने का
संग किसी के,
ना सोचों को तोलना
ना ही लफ़्ज़ों को मापना
बस उँडेल देना उन्हें बिलकुल
जस के तस,,,
एक ही साथ भूसा और अनाज
पक्के भरोसे के साथ
कि संग में है कोई हाथ
फटक पछार लेगा उनको,
रख लेगा वह उसको
जो होगा रखने लायक़
और उड़ा देगा बचे खुचे को
हमदिली की साँसों के साथ,,,,

                       -जार्ज एलीयट
मूल कविता :
~~~~~~~
Beauty of Relationship,,,,
#############
Oh ,Comfort
the inexpresiible comfort
of feeling safe with a person;
having neither to weigh thoughts
nor measure words,
but pouring them all right out
just as they are -
chaff and grain together
certain that a faithful hand
will take and sift them,
keep what is worth keeping
and with a breath of kindness
blow the rest away.
   
                   - George Eliot

Tuesday, 18 June 2019

पत्थर भी तुम मोम भी : विजया



पत्थर भी तुम मोम भी..
++++++++++++

मौन भी और स्वर भी
मानव हो और ईश्वर भी
स्थिरता हो और गति भी
भाव भी और मति भी
देह सम्पूर्ण और रोम भी
पत्थर भी तुम मोम भी.....

विराग के भाव
अनुराग की अभिव्यक्ति
विनम्रता कोमलता
अपरीमित शक्ति
सूर्य भी तुम सोम भी
पत्थर भी तुम मोम भी.....

सागर से गहरे और ठहरे
नदी से कल कल बहते
छुई मुई से नाज़ुक
वट वृक्ष से सब सहते
धरा भी तुम व्योम भी
पत्थर भी तुम मोम भी.....

Monday, 10 June 2019

वहम ज्ञान का,,,,,



वहम ज्ञान का,,,,,
#######
होता है वहम
जानने का
जितना अधिक
जानते हैं सचमुच
हम उतना ही कम,,,,,

होते हैं हम
जब भी गर्ववंत
हमारी शानदार शोधों के लिए
आधारित हमारे एकांगी ज्ञान पर,
आन खड़ी होती है तुरंत
हमारी अनभिज्ञता
कहते हुए :
क्षमा करना मेरे मित्र !
अभी तो चलना है तुम्हें बहुत दूर
अलग है यह
कर देते हैं हम
अनदेखा उसको,,,,

करते जाते हैं
निरूपण
किसी भी व्यक्ति,घटना या परिस्थिति का
अपनी सीमित दृष्टि और बोध से,
नहीं कर पाते हम आकलन
उन अनगिनत पहलूओं का जो
होते हैं प्रछन्न हमारे
अज्ञान के पर्दे में,,,,

होती है ज्ञान की यह अपर्याप्तता
ना केवल बहिरंग के लिए
हुआ करती है अवश्य
हमारी यह कमी
अंतरंग के लिए भी,
पकड़ लेते हैं ना जाने क्यों हम
बस किसी एक ही तथ्य को
छोड़ कर दूसरे तीसरे, चौथे को,
सच तो यह है
सजगता, स्पष्टता व समग्रता का अभाव
भरमा देता है हमें
उलझा कर एकांगी भेदों में
भटक जाते हैं हम राह
बाहर कहीं पहुँचने की
अंदर कहीं लौट आने की,,,,

ज़िम्मेदारी : विजया




ज़िम्मेदारी....
++++++
करती हूँ महसूस
तुम्हारे लिए मेरे प्यार को
फ़रोगे जलवा मुसल्सल,
जी रही हूँ मैं तुम्हारे लिए
उस दूब की मानिंद
निभाती है जो बदस्तूर
ज़िम्मेदारी अपनी
खुद ही क़ुदरत हो कर
देते हुए चैन ओ ठंडक
ज़मीं को
लगातार ढके रख कर उसको
अपने पूरे वजूद से,
यह बढ़त मेरे प्यार की
बना रही हो जैसे
जीवंत और ख़ुश तब'अ
हर लम्हा तुम को...

(फ़रोग़=वृद्धि/तरक़्क़ी/growing, जलवा=तेजोवलय/brilliance, तब'अ=स्वभाव/nature)

कहानी नई : नीरा


कहानी नई...
********
आ कर लें
एक वादा
उचटी हुई नींद से
आ कर लें यह सौदा
उस से,
मुलाक़ात होगी
अब ख़्वाब में
गहरी डूबी रात में ...

महसूस करें
लाली सुबह की
गले लगा कर
धूप सुहानी,
आ हम दोनो चलें
मिला कर
क़दम से क़दम
थाम कर हाथ
एक दूजे का...

चलो करें शुरू
हम तुम
एक कहानी नई
भूला कर
पिछली सब बातों को...

❤❤

Neera

साझी ग़ज़ल : विजया



साझी ग़ज़ल
+++++++

सीखने होंगे सलीक़े होश ओ जोश जीने के
गाफ़िल को जीने की अभी सौग़ात बाक़ी है.

कसर छोड़ी नहीं तुम ने मुझे यूँ आज़माने में
सितम होते गये बरपा मगर जज़्बात बाक़ी है.

होगी सहर तो हो जाएंगे ख़ुद ब ख़ुद रुख़सत
बरसने दें ख़यालों को अभी तक रात बाकी है.

चल दिए तुम छोड़ कर बाज़ी अधूरी को
शतरंज सी ज़िंदगी में शह ओ मात बाक़ी है.

भगा दिया क्यों पीट कर ग़ुस्ताख़ बंदे को
बेशर्म तो कहता गया कि लात बाक़ी है.

_______________________________

नोट :

1. पहला और आख़री शेर साहेब याने विनोद जी का, तीसरा मुदिताजी का..दूसरा और चौथा मेरा. ये शेर प्रीति की ग़ज़ल पर
कमेंट्स के दौरान emerge हुए हैं.😊.

2. थोड़े बहुत changes मैंने, साहेब की मदद से साधिकार कर दिए हैं.😊😊.

स्वतंत्रता,,,,,,



स्वतंत्रता,,,,,,
#####
कंपायमान है विचार मेरे
प्रयास में हूँ
पाने को अपनी ही शांति को,
पीता हूँ अपने ही आँसुओं में
घोलकर भय और असमंजस के शब्दों को
किंतु सोचता हूँ ऐसे में और अधिक मैं
स्वतंत्रता को,,,,

देख रहा हूँ चेहरा
एक किशोरी  का
बँधे थे हाथ जिसके,
भयभीत भी थी वह वीर बाला
किसी अजाने से भय से
कहते हैं निरक्षर थी वो मलाला
नहीं जानती थी वो
शाब्दिक परिभाषा स्वतंत्रता की
किंतु वास्तविक स्वतंत्रता ही तो था
उद्देश्य उसका भी,,,,,

संघर्षरत है हर कोई पाने को स्वतंत्रता
बिना समझे अर्थ ,
बिना हुए स्पष्ट
स्वतंत्रता के लिये,,,,

किसलिए हों हम स्वतंत्र....

मनचाहे ढंग से प्रेम करने के लिये ?
मनचाही पूजा और प्रार्थना के लिये ?
बुराई और घृणा से ?
या है क्या इस का आशय
बस समान दिखने से ?

क्या बना कर रख दिया गया है
स्वतंत्रता को
महज़ एक मतिभ्रम ?
या स्वतंत्रता है एक नया नाम
आज की ग़ुलामी का ?
या एक प्रतीक
ग़ैर ज़िम्मेदारी और बेपरवाही का ?

होता है मुझे कभी कभी महसूस
ज़रूरत है देखने और सोचने की इसको
एक नये नज़रिये से,
ज़रूरत है हमें समझने की
करना क्या होगा
पाने को वास्तविक स्वतंत्रता ?
जो करती है मुक्त
बहिरंग से कहीं अधिक अंतरंग को,,,,,

Sunday, 2 June 2019

खुले हैं दरवाज़े : विजया


खुले हैं दरवाज़े....
++++++++
चाही थी तुम ने :

एक जगह मोहब्बत की
दूर हो जो खता ना बक्सने वाली
शदीद जिन्सी ख्वाहिशें की
आतिश से,
एक जगह जुड़ाव की
परे हो जो रिश्तों को गाँठों में
बाँधने वाले रस्सों से,
एक जगह रजा मंदी की
दूर हो जो कट्टर फ़ैसला साजी की
टेढ़ी नज़रों से,
एक जगह आज़ादी की
परे हो जो नेकी बदी के
बेहूदा भेदों को जताती
समाजी किताबों के सफ़ों से,
एक जगह चैन की
मुहैय्या हो जो
बिना कोई शर्त लगाये
करते हुए तस्लीम
'जैसे हो तुम वैसे' को

पूछा था मैं ने :

क्या जानते हो तुम ऐसी किसी जगह को ?
कहीं ज़्यादा तो नहीं है ना मेरा यह पूछना ?

कह रहे थे तुम जैसे अपनी ही एक खामोशी में :

तलाश के खेल में थका हारा
खोज रहा हूँ आज भी तो मैं
जवाब इसका.....

और सुना होगा तुम ने मेरे मौन में :

देखो जानती हूँ मैं ऐसी एक जगह को
जो बनायी थी मैंने तुम्हारे लिए
दिल में मेरे,
बेचैन है वो आज भी
तुम्हारे लौट आने के इंतज़ार में,
खुले हैं दरवाज़े
चले आओ बिना कोई शर्त के...
__________________________

(शदीद=तीव्र/severe,जिन्सी खवाहिशें=वासनाएँ/lust
रज़ामन्दी=स्वीकृति/acceptance
फ़ैसला साजी=जजमेंटल होना
नेकी बदी=भलाई -बुरायी, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य (समाज के बनाए नैतिक मापदंडों के संदर्भ में, तस्लीम=स्वीकार)

Saturday, 1 June 2019

Which One To Choose : Neera

स्वांत: सुखाय
========
(हिंदुस्तानी रूपांतरण के साथ)

Which One To Choose...
***********************
My feelings rising out in waves ,
High and low.
Oozing endlessly from
The deep Ocean of emotions....

Uncertainties engulf
My naive self,
Weaving hope and expectations
Together into a cobweb ...,

Puzzled about
What the future has in store
I succumb to myself,
Questioning  my being to,
And also ask myself
Which one to choose ?
Desires or duties !

~Neera

हिंदी रूपांतरण : Thanks to my Dearest Mom
=============================
चुनूँ मैं किसको ?
************
दीख रही है लहरों में
उमड़ती हुई भावनाएँ मेरी
निरंतर उठती और उतरती हुई
भावों के गहरे महासागर में,
निगल जाती है अनिश्चिततायें
मेरे सरल स्वयं को
बनाते हुए जाले
प्रत्याशाएँ और अपेक्षाओं के,
क्या छुपा है भविष्य के गर्भ में
बस इसी उलझन के साथ
करती रहती हूँ
बहुतेरी जिज्ञासाएँ स्वयं से,
हो जाती हूँ इसी क्रम में
परास्त अपने आप से
उठाते हुए प्रश्न
अपने होने पर भी,
और यह भी कि चुनूँ मैं किसको
वांछाओ को या कृतव्य को ?

~नीरा

Perfect Glass Vase : Neera

स्वांत: सुखाय

***********
(हिंदी भावानुवाद के लिए पापा को धन्यवाद)

TO RETURN HOME...,
##############
Jumbled with my own thoughts,
Each one just puzzling me enough
To lose and crumble myself to pieces.....

Seems I am stuck in
A cobweb of my own expectations
From the world,
Crashing away from the reality .....

The world, the world of people
I seem to know ,
Appears complete strangers to me....

I feel lost like
Alice in wonderland,
Searching for shadow
Where it’s just desert....

I am  just wandering about ,
Struggling to find some miraculous path
to return home,
to return home....



घर लौट जाने के लिए.....
############
ख़ुद के ही सोचों में
गडमगड हूँ मैं,
लगता ऐसा ज्यों
धकेल रहा है भरपूर
हर कोई मुझे
घनी पेचीदगियों में
करते हुए
चूर चूर और गुमशुदा मुझ को....

लगता है अटक गयी हूँ मैं
अपनी ही अपेक्षाओं के
मकड़जाल में
हो गयी हूँ मैं दूर
छिटक कर
ज़मीनी हक़ीक़तों से....

संसार, वह संसार
वहम था मुझे जानने जिस को
हो रहा महसूस आज वो
निहायत ही अजनबी मुझ को...

पा रही हूँ मैं खोई हुई ख़ुद को
जैसे कोई 'ऐलिस अद्भुत देश में'
तलाश रही हूँ छांव
जहाँ चारों तरफ़ है सिर्फ़ रेगिस्तान....

बस भटके जा रही हूँ मैं
करते हुई जद्दोजहद
ढूँढ पाने को कोई चमत्कारी राह
घर लौट जाने के लिए
अपने घर लौट जाने के लिए....

❤❤
Neera-2019

To Return Home : Neera

स्वांत: सुखाय

***********
(हिंदी भावानुवाद के लिए पापा को धन्यवाद)

TO RETURN HOME...,
##############
Jumbled with my own thoughts,
Each one just puzzling me enough
To lose and crumble myself to pieces.....

Seems I am stuck in
A cobweb of my own expectations
From the world,
Crashing away from the reality .....

The world, the world of people
I seem to know ,
Appears complete strangers to me....

I feel lost like
Alice in wonderland,
Searching for shadow
Where it’s just desert....

I am  just wandering about ,
Struggling to find some miraculous path
to return home,
to return home....



घर लौट जाने के लिए.....
############
ख़ुद के ही सोचों में
गडमगड हूँ मैं,
लगता ऐसा ज्यों
धकेल रहा है भरपूर
हर कोई मुझे
घनी पेचीदगियों में
करते हुए
चूर चूर और गुमशुदा मुझ को....

लगता है अटक गयी हूँ मैं
अपनी ही अपेक्षाओं के
मकड़जाल में
हो गयी हूँ मैं दूर
छिटक कर
ज़मीनी हक़ीक़तों से....

संसार, वह संसार
वहम था मुझे जानने जिस को
हो रहा महसूस आज वो
निहायत ही अजनबी मुझ को...

पा रही हूँ मैं खोई हुई ख़ुद को
जैसे कोई 'ऐलिस अद्भुत देश में'
तलाश रही हूँ छांव
जहाँ चारों तरफ़ है सिर्फ़ रेगिस्तान....

बस भटके जा रही हूँ मैं
करते हुई जद्दोजहद
ढूँढ पाने को कोई चमत्कारी राह
घर लौट जाने के लिए
अपने घर लौट जाने के लिए....

❤❤
Neera-2019

Friday, 24 May 2019

फिर कैसे होते थे : विजया

थीम सृजन : जाने कहाँ गये वो दिन
***************************

फिर कैसे होते थे....
+++++++++
पूछती थी जब जब मैं
पढ़ लेते हो ना तुम लोगों के मनों को ?
मुकर जाते थे तुम हमेशा
एक अभ्यस्त अपराधी की तरह....

फिर कैसे होते थे तब तुम्हारे पास
सटीक उत्तर सभी प्रश्नों के,
तुम ने कभी नहीं कहा था मुझ को
हो जाने को आशावादी
किंतु सीखा दिया था मुझ को
कैसे निपटा जाए विपरीतताओं से
कैसे बनाए रखा जाय विश्वास
कैसे हुआ जाय धैर्यवान
कैसे किया जाय गर्व अपने आप पर,
तुम नहीं मानते थे ना ईश्वर को औरों की तरह
लेकिन फिर भी क्यों रखे रखते थे
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे स्वयं में....

फिर कैसे पढ़ लेते थे तब तुम हमेशा भाषा देह की,
क्यों कर सकता था फिर कोई भी अजनबी
ग़लती तुम्हें संत समझने की
देख कर तुम को घूमते फिरते
बिना गिड़गिड़ाते और बड़बड़ाते
बारिश, काले अंधेरे बादलों, बिजलियों और तूफ़ानों में
जैसे बिता रहा हो छुट्टियाँ कोई,
और ऐसे बिरले पुरुष क्यों हो तुम
जो कभी कहते नहीं हिचकिचाता कि
हरेक सशक्त गृहिणी की प्रवृति भी होती है ऐसी,
फिर ना जाने क्यों तुम ले जाते हो
अपना उलझा हुआ दिल
और खोल भी देते हो उसको
ऐसे लोगों के समक्ष जो नहीं होते योग्य इसके....

फिर कैसे खोल दिया था तब
मेरे मनमस्तिष्क को नए विचारों के लिए,
कैसे बताया था मुझ को कविताओं से प्रेम करना
ताकि मैं अपने विगत के घावों को भर सकूँ ,
कैसे बता सके थे तब तुम मुझ को
नहीं है जीवन एक कहानी परियों की
बहुत लम्बा समय लगता है निर्माण में अपेक्षाकृत विध्वंस के
इसलिए किया करो प्रेम अपने प्रत्येक पल से
जीयो अपने हर क्षण को सजगता से
क्योंकि खो सकते हो उस क्षण को कभी भी....

फिर कैसे बता दिया था तब मुझ को
धीरज रखो जब जब असफलता ज़रा लम्बी चलती है
असफलता को तुम्हारी हिम्मत ना तोड़ने दो
सीखना होगा तुम्हें ना चाहते हुए भी चलते रहना,
कैसे कहा था तब तुम ने
भूलों को क्षमा कर दो लेकिन भूलो मत !
लोग तुम्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं
क्योंकि वो अंदर से चोट खाए होते हैं
सबसे अच्छा उपाय है
चंगा कर लेने का इन आघातों को
बस इन्हें स्वीकार कर लेना
और छोड़ कर आगे बढ़ जाना
क्योंकि जीवन बहुत छोटा जो है.....

पूछती हूँ आज़ भी
पढ़ लेते हो ना तुम लोगों के मनों को ?
मुकर जाते हो तुम पहले जैसे ही
एक अभ्यस्त अपराधी की तरह
चलो आज इतना तो बता दो
कैसे पढ़ लेते हो तुम मेरे मन को ?

Thursday, 23 May 2019

नहीं जानना है यह ज़रूरी : विजया


नहीं जानना है यह ज़रूरी....
+++++++++++++
यह उन दिनों में से एक था
जब कुछ भी मायने नहीं रखा करता
सिवा तुम्हारे और मेरे.…

टहल रहे थे दोनों
मेरा हाथ था तुम्हारे हाथ में
मुझे गाइड करता हुआ
गरम लू से बाहर निकालने को...

रोका था तुम्हें मैंने और टोका भी था,
"सुनो ! तुम ने क्या मुझ पर भी लिखा है कुछ ?"
"हाँ" लिखें है मैंने हज़ारों बंध तुम्हारे लिए."
कहा था तुम ने.

"क्यों नहीं दिखाए थे वे सब तुम ने मुझ को- पढ़ूँगी कोई एक मैं भी."
उचकाये थे कंधे मैंने.

बोले थे तुम
मेरे वुजूद को छू जाए उस आवाज़ में,
"क्योंकि उनमें से कोई भी तो
नहीं कर पा रहा न्याय
तुम्हारी सहजता
तुम्हारी गहराई
तुम्हारे समर्पण
तुम्हारी शालीनता
तुम्हारी दीप्ति के साथ."

उसकी झील सी गहरी आँखों में
झाँका था मैं ने
उसके शांत चेहरे के आइने में
देखा था अक्स अपना
किये थे महसूस
स्पंदन उसकी हथेली के
जिसने थाम रखा था
एक कोमल दृढ़ता के साथ हाथ मेरा....

और निकला था मेरे मुँह से,
"ले चल मुझे
इस लू और धुँध से बाहर !"
और चल दिया था वो
मुझे साथ लेकर...

क्या किया था उसने ?
चाहत का सम्मान
आदेश का पालन
प्रतिबद्धता का निर्वाह,
नहीं समझना है यह ज़रूरी
साथ जीने के लिए
नहीं जानना है यह ज़रूरी
प्रेम में होने के लिए....

कोरे कोरे सफ़ेद सफ़्हे,,,,,

थीम सृजन :
हार और जीत/जाने कहाँ गये वो दिन
===================

कोरे कोरे सफ़ेद सफ़्हे,,,,
############
शुरू किया था जिन दिनों
सफ़रे जिंदगानी मैंने,
सामने थे मेरे बस कोरे काग़ज़,
सफ़ेद सफ़्हे
बिलकुल पाक और अनछुये
हिमाला की बर्फ़ जैसे,,,,

नहीं थे कोई भी निशाँ सियाही के
ना ही थी कोई खरोंच
कलम की चोट की
नहीं थी आड़ी तिरछी लकीरें
कोई कहानी भी नहीं थी
जो दिखती लिखी हुई उन पर,,,,,

सफ़्हा दर सफ़्हा
कर रहा था जैसे इंतज़ार
ख़ुद के इस्तेमाल होने का
सब्र, सुकून, हँसी ख़ुशी
होश और जोश के साथ,
हर सफ़्हा था जगाता हुआ
अरमान मुस्तकबिल के
हर वरक़ देता हुआ हौसले
आज को जी लेने के,,,,

हर सफ़्हा था मस्रूर
पेश क़दमी करता हुआ
अपने पलटे जाने की
सोचता हुआ कि
पहुँचेगा कब ये फ़साना
मंज़िले मक़सूद को,,,,

लिखती गयी मुसल्सल
कहानी मेरी ज़िंदगी की,
भरते गए कोरे सफ़े
रंग औ स्याही से
पाने और खोने की
जागने और सोने की
मिलन और जुदाई की
वफ़ा और बेवफ़ाई की
ख़ुशी और ग़म की
सादगी और पेचो खम की,,,,

हर कोई था किरदार
कहानी का मेरी
जो साथ है मेरे और रहेंगे
वो भी
जो छोड़ गए मुझ को या छोड़ जाएँगे,,,

जानता हूँ लेकिन आज मैं
उठाएँगे लुत्फ़ कौन कौन इसका,
वे जो तैयार हैं
हर हर्फ़ का साथ देने दिलों से,
वे जो माहिर हैं
पढ़ने में अल्फ़ाज़ और जुमलों से आगे
वे जो बेदार हैं
हार और जीत के हर दौर में...
वे जो हाज़िर हैं
क़दम से क़दम मिला कर चलने में ......

सफ़्हा=पृष्ठ/page, मुस्तकबिल=भविष्य, वरक़=पृष्ठ/page, मस्रूर=प्रसन्न/delighted,पेश क़दमी=प्रत्याशा/anticipation,मंज़िले मक़सूद=अंतिम उदेश्य/ultimate aim, जुमला=वाक्य, sentence, बेदार=जागृत/aware

Tuesday, 14 May 2019

विनम्र सीखें प्रकृति की : विजया


विनम्र सीखें प्रकृति की......
+++++++++++
टहलते हुए समुद्र तट पर
झुनझुनी झागदार
लहराती हुई उत्ताल लहरें
खाती है हिलोरे देर तक
पेरे पाँवों के ऊपर से होते हुए,
मानो हो कोई नन्हें नन्हें चुम्बन
और लौट जाती है फिर बारम्बार.....

नमकीन हवा में साँस लेने के दरमियान
हो जाती हूँ विस्मित मैं
बलशाली महासागर के रुआब से,
इस ग़ज़ब समां में
सहज सुखद झोंके
करते रहते है स्पर्श मेरा
उड़ाते हुए मेरे दिमाग़ में जमी गर्द को.....

जीवंत साँस लेते लेते मुझे
प्रतीत होता है
भव्य समुद्रीझागों के विस्तार का
चौंका देने वाला सौंदर्य
एक विशाल तरल केक सा
जाजवल्यमान फेनिल नोकों से सज़ा धजा....

बताते हैं रोमांचक छपाके जोशीले जल के
उत्कृष्ट रंगों एवं आकार प्रकार वाली
तृप्त जीवन की भरपूरता को
विद्यमान है जो सतह के नीचे
बिलकुल गहराई तक
जैसे हो एक दुनियाँ में एक और दुनियाँ.....

निर्मल कर देने वाली
सुकून भरी शांति की चेतना
गुज़र जाती है जो हो कर मुझ से,
और पिघला जाती है
ज़िंदगी की नगण्य नाराजगियों को
जैसे कि जिव्हा पर हिम कण...

कृतज्ञ हूँ
नतमस्तक हूँ
प्रकृति की इन समस्त विनम्र सीखों के लिए....

तुम्हारे हाथ का प्याला : विजया



तुम्हारे हाथ का प्याला...
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चाहती हूँ मे
प्रेम पाना पल प्रति पल
चाहती हूँ मैं
नित्य पीना
तुम्हारे हाथ के प्याले से...

देखा है मैं ने
भरे होते हैं हर दम हाथ तुम्हारे
उस प्याले को थामते हुए
उड़ेलते रहते हो लगातार
जिस से प्रेम
मेरे समग्र जीवन में...

सीख लिया है मैं ने
उड़ेलते हो तुम जो भी
भर देना फिर से उसको,
स्वीकारती हूँ
किंतु नहीं खोज पायी
वे शब्द अब तक
जो कह पाये जो भी निहित है
अप्रकट सा
तुम्हारे मन मस्तिष्क में...

जान पाई हूँ मैं
गुम है जो भी,
भर देने उसकी रिक्तता को
चाहिये होता है
एक गंभीर धीर स्थिर हाथ,
हाथ तुम्हारे जैसा
जो पहुँच पाये सदैव
प्यासे होठों तक...

सुनो !
सम्पूर्ण समर्पण
और कुछ भी नहीं
सिवा हमारे परस्पर सहज होने के,
श्रेयस्कर है स्वीकारना
कि हम हैं बहुत कुछ तृप्त
तभी तो हो पाती है अनुभूत
हमारी प्यास हल्की हल्की...