शब्द सृजन : मृत्यु, अवसाद आदि
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समापन नहीं,,,
#######
••••••••••
यह समापन नहीं
मृत्यु भी नहीं
प्रत्युत
हैं कुछ और
है कुछ और,,,
•••••••••
होते हैं ना
कुछ पल
जब नहीं कर पाते हम
अनुभूति रचनात्मक वर्तमान की
परिकल्पना सकारात्मक भविष्य की,,,
पड़े होते हैं हम
ताकते हुए
उन्ही दीवारों को
उसी छत को,
होते हैं आसपास
वे ही शब्द
जिनमे और कुछ नहीं
बस समाहित होते हैं
वे ही भाव चिंतन और स्पंदन
विगत के
खोखले
ख़ाली ख़ाली
सुस्त पीले पीले से,,
लगता है जैसे
कोई कारण नहीं
चलते रहने के
होने देने के
यहाँ तक कि कुछ भी तो
पर्याप्त और सक्रिय नहीं होता
यहाँ तक कि
'असफल' हो जाएँ
उसके लिए भी,,,
होता है ना 'आगत'
प्रवेशाकुल
किंतु नहीं होते हम प्रस्तुत
स्वागत थाल लिए,
नहीं होना चाहते हम शुमार
उसके अभिनंदन उत्सव में,
ऐसी मनस्थिति
जिसमें बस रोक देना चाहते हैं
सब कुछ
बस बैठ जाना चाहते हैं
जड़ हो कर,
नहीं है मौत यह, क़त्तई
यदि होती वह मौत
तो स्थायी होती है ना...
किंतु यह कुछ तो है
बिलकुल सन्निकट उसके,
लगता है मानो
समापन है
श्वासों के गमनागमन का,,,
करते हैं हम महसूस
एक रस्सा गर्दन से लिपटा
एक चाक़ू कलाई पर
गोलियों का कसेला सा स्वाद जिव्हा पर
करते हैं हम
कल्पना मात्र इनकी
हालाँकि स्वयं नहीं होते निश्चित कि
चाहते हैं ये सब
अंतर्मन से,,,
क्षणिक भवोद्वेग़ है
ये तो
जिन्हें ना जाने क्यों
पाते हैं हम स्वयं
अपने छद्म अस्तित्व सा,
(और)खोलते हैं द्वार
बिना थप थपाए
अहसासे कमतरी के
कुंठाओं के
अवसाद के,,,,
अभीष्ट हो हमारा
पहचान कर
स्वयं को
अपने वजूद को
अपने सारतत्व को
होकर सजग और स्पष्ट स्वयं में
होकर तत्पर
स्वीकारने सम और विषम को
सम भाव से
समस्त आग्रहों से परे...
पाने को ख़ुद को
और
जीने को स्वयं को,,,,
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समापन नहीं,,,
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यह समापन नहीं
मृत्यु भी नहीं
प्रत्युत
हैं कुछ और
है कुछ और,,,
•••••••••
होते हैं ना
कुछ पल
जब नहीं कर पाते हम
अनुभूति रचनात्मक वर्तमान की
परिकल्पना सकारात्मक भविष्य की,,,
पड़े होते हैं हम
ताकते हुए
उन्ही दीवारों को
उसी छत को,
होते हैं आसपास
वे ही शब्द
जिनमे और कुछ नहीं
बस समाहित होते हैं
वे ही भाव चिंतन और स्पंदन
विगत के
खोखले
ख़ाली ख़ाली
सुस्त पीले पीले से,,
लगता है जैसे
कोई कारण नहीं
चलते रहने के
होने देने के
यहाँ तक कि कुछ भी तो
पर्याप्त और सक्रिय नहीं होता
यहाँ तक कि
'असफल' हो जाएँ
उसके लिए भी,,,
होता है ना 'आगत'
प्रवेशाकुल
किंतु नहीं होते हम प्रस्तुत
स्वागत थाल लिए,
नहीं होना चाहते हम शुमार
उसके अभिनंदन उत्सव में,
ऐसी मनस्थिति
जिसमें बस रोक देना चाहते हैं
सब कुछ
बस बैठ जाना चाहते हैं
जड़ हो कर,
नहीं है मौत यह, क़त्तई
यदि होती वह मौत
तो स्थायी होती है ना...
किंतु यह कुछ तो है
बिलकुल सन्निकट उसके,
लगता है मानो
समापन है
श्वासों के गमनागमन का,,,
करते हैं हम महसूस
एक रस्सा गर्दन से लिपटा
एक चाक़ू कलाई पर
गोलियों का कसेला सा स्वाद जिव्हा पर
करते हैं हम
कल्पना मात्र इनकी
हालाँकि स्वयं नहीं होते निश्चित कि
चाहते हैं ये सब
अंतर्मन से,,,
क्षणिक भवोद्वेग़ है
ये तो
जिन्हें ना जाने क्यों
पाते हैं हम स्वयं
अपने छद्म अस्तित्व सा,
(और)खोलते हैं द्वार
बिना थप थपाए
अहसासे कमतरी के
कुंठाओं के
अवसाद के,,,,
अभीष्ट हो हमारा
पहचान कर
स्वयं को
अपने वजूद को
अपने सारतत्व को
होकर सजग और स्पष्ट स्वयं में
होकर तत्पर
स्वीकारने सम और विषम को
सम भाव से
समस्त आग्रहों से परे...
पाने को ख़ुद को
और
जीने को स्वयं को,,,,
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