नहीं जानना है यह ज़रूरी....
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यह उन दिनों में से एक था
जब कुछ भी मायने नहीं रखा करता
सिवा तुम्हारे और मेरे.…
टहल रहे थे दोनों
मेरा हाथ था तुम्हारे हाथ में
मुझे गाइड करता हुआ
गरम लू से बाहर निकालने को...
रोका था तुम्हें मैंने और टोका भी था,
"सुनो ! तुम ने क्या मुझ पर भी लिखा है कुछ ?"
"हाँ" लिखें है मैंने हज़ारों बंध तुम्हारे लिए."
कहा था तुम ने.
"क्यों नहीं दिखाए थे वे सब तुम ने मुझ को- पढ़ूँगी कोई एक मैं भी."
उचकाये थे कंधे मैंने.
बोले थे तुम
मेरे वुजूद को छू जाए उस आवाज़ में,
"क्योंकि उनमें से कोई भी तो
नहीं कर पा रहा न्याय
तुम्हारी सहजता
तुम्हारी गहराई
तुम्हारे समर्पण
तुम्हारी शालीनता
तुम्हारी दीप्ति के साथ."
उसकी झील सी गहरी आँखों में
झाँका था मैं ने
उसके शांत चेहरे के आइने में
देखा था अक्स अपना
किये थे महसूस
स्पंदन उसकी हथेली के
जिसने थाम रखा था
एक कोमल दृढ़ता के साथ हाथ मेरा....
और निकला था मेरे मुँह से,
"ले चल मुझे
इस लू और धुँध से बाहर !"
और चल दिया था वो
मुझे साथ लेकर...
क्या किया था उसने ?
चाहत का सम्मान
आदेश का पालन
प्रतिबद्धता का निर्वाह,
नहीं समझना है यह ज़रूरी
साथ जीने के लिए
नहीं जानना है यह ज़रूरी
प्रेम में होने के लिए....
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