Friday, 24 May 2019

फिर कैसे होते थे : विजया

थीम सृजन : जाने कहाँ गये वो दिन
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फिर कैसे होते थे....
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पूछती थी जब जब मैं
पढ़ लेते हो ना तुम लोगों के मनों को ?
मुकर जाते थे तुम हमेशा
एक अभ्यस्त अपराधी की तरह....

फिर कैसे होते थे तब तुम्हारे पास
सटीक उत्तर सभी प्रश्नों के,
तुम ने कभी नहीं कहा था मुझ को
हो जाने को आशावादी
किंतु सीखा दिया था मुझ को
कैसे निपटा जाए विपरीतताओं से
कैसे बनाए रखा जाय विश्वास
कैसे हुआ जाय धैर्यवान
कैसे किया जाय गर्व अपने आप पर,
तुम नहीं मानते थे ना ईश्वर को औरों की तरह
लेकिन फिर भी क्यों रखे रखते थे
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे स्वयं में....

फिर कैसे पढ़ लेते थे तब तुम हमेशा भाषा देह की,
क्यों कर सकता था फिर कोई भी अजनबी
ग़लती तुम्हें संत समझने की
देख कर तुम को घूमते फिरते
बिना गिड़गिड़ाते और बड़बड़ाते
बारिश, काले अंधेरे बादलों, बिजलियों और तूफ़ानों में
जैसे बिता रहा हो छुट्टियाँ कोई,
और ऐसे बिरले पुरुष क्यों हो तुम
जो कभी कहते नहीं हिचकिचाता कि
हरेक सशक्त गृहिणी की प्रवृति भी होती है ऐसी,
फिर ना जाने क्यों तुम ले जाते हो
अपना उलझा हुआ दिल
और खोल भी देते हो उसको
ऐसे लोगों के समक्ष जो नहीं होते योग्य इसके....

फिर कैसे खोल दिया था तब
मेरे मनमस्तिष्क को नए विचारों के लिए,
कैसे बताया था मुझ को कविताओं से प्रेम करना
ताकि मैं अपने विगत के घावों को भर सकूँ ,
कैसे बता सके थे तब तुम मुझ को
नहीं है जीवन एक कहानी परियों की
बहुत लम्बा समय लगता है निर्माण में अपेक्षाकृत विध्वंस के
इसलिए किया करो प्रेम अपने प्रत्येक पल से
जीयो अपने हर क्षण को सजगता से
क्योंकि खो सकते हो उस क्षण को कभी भी....

फिर कैसे बता दिया था तब मुझ को
धीरज रखो जब जब असफलता ज़रा लम्बी चलती है
असफलता को तुम्हारी हिम्मत ना तोड़ने दो
सीखना होगा तुम्हें ना चाहते हुए भी चलते रहना,
कैसे कहा था तब तुम ने
भूलों को क्षमा कर दो लेकिन भूलो मत !
लोग तुम्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं
क्योंकि वो अंदर से चोट खाए होते हैं
सबसे अच्छा उपाय है
चंगा कर लेने का इन आघातों को
बस इन्हें स्वीकार कर लेना
और छोड़ कर आगे बढ़ जाना
क्योंकि जीवन बहुत छोटा जो है.....

पूछती हूँ आज़ भी
पढ़ लेते हो ना तुम लोगों के मनों को ?
मुकर जाते हो तुम पहले जैसे ही
एक अभ्यस्त अपराधी की तरह
चलो आज इतना तो बता दो
कैसे पढ़ लेते हो तुम मेरे मन को ?

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