प्रस्तर प्रवेशनीय...
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माना कि तुम हो
एक पाषाण
अचल, दृढ़, निर्लिप्त,
कभी कभी निष्ठुर भी,
किंतु हुआ करता है ना
हर प्रस्तर भी प्रवेशनीय
समा सकता है जल
उसके अंदर भी
किसी न किसी बहाने,
बना देता है
बालुका चट्टान को,
और हो जाता है ना
वही दृढ़ शिला खंड
नरम और लचीला
अविभेध्य कणों वाला...
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