ना जीना हो सहम कर,,,,
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पंछी यह अब थक गया
फलक में उड़ उड़ कर
मिल जाए शजर कोई
जो बैठे वहाँ ठहर कर,,,
तपन नहीं हो सूरज की
ना अंधड़ के हो थपेड़े
उलझे से ना हो बादल
हो छांव शीतल सुख कर ,,,
पाया था बहुत उस ने
दुई हाथ से लुटाया
बेमानी सा लगे सब
टुक दूर से निरख कर,,,
ख़ुद के लिए नज़र हो
हो ख़ुद के ही नज़ारे
बस डूबना हो ख़ुद में
जीना ना हो सहम कर,,,
बहरे-मव्वाज झूठा
सच बूँद एक छोटी
हो जाती जो है मोती
एक सीप में उतर कर,,,
नाकर्दा गुनाही की
सज़ा कर दी जो मुक़र्रर
क्या मिला बता तुझे यूँ
मेरी पाँखों को कतर कर,,,
बागे बिहिश्त से मुझ को
हुक्मे सफ़र दिया क्यों
कारे जहाँ दराज़ है
अब तनहा तू बसर कर,,,
(आख़री शेर इक़बाल के एक शेर का adaption है)
(मायने : शजर=पेड़/tree, टुक=ज़रा, बहरे-मव्वाज=मौजें मारता हुआ समुद्र/stormy sea
शदफ=सीप/shell, नाकर्दा गुनाह=अपराध जो नहीं किए गए, जज़ा=बागे बिहिश्त=स्वर्ग/paradise, कारे जहाँ=सांसारिक कार्य/day to day work
दराज़=लम्बे/long)
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