थीम सृजन : बहती नादिया शुष्क किनारे
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बहती नादिया...
++++++++
नहीं थोपे हैं किनारे
बाहर से किसी ने
बनाये हैं नदिया ने ही
खुद के लिए
ताकि बिना भटके
चल कर सुचारू रूप से
पहुँच सके अपने प्रवाह से
वह समंदर तक
करने को सम्पूर्ण विलय स्वयं का...
बिना होश,
स्पष्टता और स्वीकार्यता के
खोजने लगती है नदिया
जब भी कोई तीसरा किनारा
होता है जो केवल उसकी ही
कपोल कल्पनाओं में
नितांत परे वास्तविकताओं से
सर्वथा विपरीत अभीष्ट के,
हो जाता है वही
हेतु विभत्स उपद्रवों का...
हो कर उत्तेजित
उबल कर उफन कर
होकर प्रभावित बाहरी ताक़तों से
या अतिवृष्टि जैसी आकस्मिक घटनाओं से
या खोल दिए जाने पर मानव निर्मित बाँधों के
कर देती है अतिक्रमण
अपने द्वारा निर्धारित
अपनी ही सीमाओं का...
वजूद किनारों का
रख रखाव उनका
करता है निर्भर नदिया पर ही,
होकर उद्वेलित ना जाने क्यों
तोड़ डालती है जो
अपने ही तटबन्धों को...
बदल जाए रूख या जगह
नहीं रह सकती
नहीं बह सकती
कोई भी नदिया कभी भी
बिना दो किनारों के...
शुष्क किनारे...
++++++
सूखा देती है
अनावृष्टि नदिया को
कम पिघलना पहाड़ों की बर्फ़ का भी
कर देता है मंद प्रवाह नदी का
सामान्य सा दर्शन है यह
शुष्क किनारों का...
हो जाती है सरिता ऐसे में मौसमी
या खो देती है वेग अपना
या मिट ही जाता है अस्तित्व उसका
लुप्त नदी और शुष्क किनारे
बने रहते हैं कुछ अरसे तक
हो जाते हैं फिर एक मेक
समतल ज़मीन के साथ...
(नदिया याने व्यक्ति.….दो किनारों से आशय है तन और मन या कहें अंतरंग और बहिरंग की संतुलित कोड ऑफ कंडक्ट....तीसरा किनारा है भाव और विवेक दोनों से रहित अराजकता.)
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बहती नादिया...
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नहीं थोपे हैं किनारे
बाहर से किसी ने
बनाये हैं नदिया ने ही
खुद के लिए
ताकि बिना भटके
चल कर सुचारू रूप से
पहुँच सके अपने प्रवाह से
वह समंदर तक
करने को सम्पूर्ण विलय स्वयं का...
बिना होश,
स्पष्टता और स्वीकार्यता के
खोजने लगती है नदिया
जब भी कोई तीसरा किनारा
होता है जो केवल उसकी ही
कपोल कल्पनाओं में
नितांत परे वास्तविकताओं से
सर्वथा विपरीत अभीष्ट के,
हो जाता है वही
हेतु विभत्स उपद्रवों का...
हो कर उत्तेजित
उबल कर उफन कर
होकर प्रभावित बाहरी ताक़तों से
या अतिवृष्टि जैसी आकस्मिक घटनाओं से
या खोल दिए जाने पर मानव निर्मित बाँधों के
कर देती है अतिक्रमण
अपने द्वारा निर्धारित
अपनी ही सीमाओं का...
वजूद किनारों का
रख रखाव उनका
करता है निर्भर नदिया पर ही,
होकर उद्वेलित ना जाने क्यों
तोड़ डालती है जो
अपने ही तटबन्धों को...
बदल जाए रूख या जगह
नहीं रह सकती
नहीं बह सकती
कोई भी नदिया कभी भी
बिना दो किनारों के...
शुष्क किनारे...
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सूखा देती है
अनावृष्टि नदिया को
कम पिघलना पहाड़ों की बर्फ़ का भी
कर देता है मंद प्रवाह नदी का
सामान्य सा दर्शन है यह
शुष्क किनारों का...
हो जाती है सरिता ऐसे में मौसमी
या खो देती है वेग अपना
या मिट ही जाता है अस्तित्व उसका
लुप्त नदी और शुष्क किनारे
बने रहते हैं कुछ अरसे तक
हो जाते हैं फिर एक मेक
समतल ज़मीन के साथ...
(नदिया याने व्यक्ति.….दो किनारों से आशय है तन और मन या कहें अंतरंग और बहिरंग की संतुलित कोड ऑफ कंडक्ट....तीसरा किनारा है भाव और विवेक दोनों से रहित अराजकता.)
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