Tuesday, 24 September 2019

संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)


संतुलित जीवन (दीवानी सीरीज़)
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नज़रिया दीवानी का
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दीवानी के सोचों में अस्तित्व बोध की तीव्र प्रबलता का agression और क्षोभ साथ साथ चलने लगता था. संस्कार में विनयशीलता और संवेदन उस प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति के साथ विरोधाभास के रूप में उभर आते थे. एक तरफ़ विद्रोह/क्रांति के भावों की तड़फ दूसरी ओर आदर्शों की स्वीकृति intellectual interpretetion के बिम्ब के रूप में घटित हो जाते थे, जैसे की उसकी यह नज़्म :

झुकना,,,,
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बौनी होती जा रही हूँ मैं
समझौतों का बोझ ढोते-ढोते,
अस्तित्व कंकाल होता
जा रहा है मेरा,,,

झुक कर चलते-चलते
झुकी ही रह गई हूँ,
किन्तु झुकना हमेशा
हार नहीं होता,,,,

सलीकामंद शाख़ों का
झुकना ज़रूरी है
जब परिंदे घर लौटें,,,

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नज़रें 'वि' की
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बार बार पढ़ा था मैंने उसके अल्फ़ाज़ को....उसको देख पा रहा था अपने ही सोचों के भँवर में फँसा हुआ. सोचता था चुप रहूँ या कुछ कहूँ....अंदर से आवाज़ आयी....कहना तो होगा क्योंकि कभी कभी ऐसी बातें दीवानी अपने असमंजस और उलझन के बीच मेरे reaffirmation की अपेक्षा के साथ भी कर बैठती थी,इसे सहज मानवीय स्वभाव कहूँ या उसकी उत्सुकता. चलिए मैंने अपनी 'ज्ञान' झाड़ने की कुलकुलाहट कुछ ऐसे मिटायी :

संतुलित जीवन,,,
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संवेदना
सौहार्द
संस्कारमयी स्निग्धता ने
कर दिया है
तुम्हारे क़द को ऊँचा
अपनों के बीच
ना जाने क्यों
माप रही हो ख़ुद को
समझ कर बौना,,,
थोपी हुई धारणाओं को
जीना हो सकता है
बौझ समझौतों का
किन्तु
चुनी हुई प्रतिबद्धतायें
होती हैं अलंकार हमारे,
कहा था ना तुम्हीं ने
होता है अनुभूति का सम्बंध
घटना से कहीं अधिक
मन स्थितियों से,,,

ज़रूरी है झुकना भी
लोग वरना
गुज़र जाएँगे पास से
पत्थर समझ कर,
झुकते हैं जो
साथ सजगता के
नहीं होती बेबसी उनकी
जी लेते हैं वो हुनर अपना
हर रिश्ते को निबाह कर,,,

सच है झुकती है
फलों लदी डालियाँ ही
मगर नहीं है लाज़िमी
झुक कर बना देना
खुदा किसी को,
नहीं है वांछित कोई भी चरम
एक संतुलित जीवन के लिए,,,

नसीहत नहीं
अनुभव है ज़िंदगी के
जीने का मंत्र है
शब्द त्रय
चेतनता, स्पष्टता और स्वीकार्यता,,,

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(Note : Deewani's version is an adapt of a poem of Vidya Bhandariji : With thanx and regards)





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