यात्रा प्रेम की,,,,,,,
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मिथ्या है कहना कि
उभयपक्षी है अस्तित्व प्रेम का
होती है परिभाषा ऐसी
मात्र सम्बन्धों की,
प्रेम,नहीं है विषय
क्रिया प्रतिक्रिया का
बना दी गयी है इसकी भाषा
लौकिक अनुबंधों की,,,,,
होता है प्रेम देहतर
विलय आत्मा से आत्मा का
प्रेम है प्रार्थना
प्रेम है भाव परमात्मा का,
समय और स्थितियों से
परे होता है प्रेम सच्चा,
भ्रम है इसे समझ लेना
जीवन वैरागी महात्मा का,,,,,
आरंभ प्रेम यात्रा का
होता है स्वयं से
गंतव्य जिसका होता है
स्वयं ही
"अहम ब्रह्मास्मि,,,तत्वमसि"
सत्य का प्रतीक है
हो जाना
केवल वयम ही,,,,,,,
टिप्पणी :
१)उपनिषद के महावाक्यों में से दो का प्रयोग इस रचना में हुआ है.
ये महावाक्य स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है -
अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद)
२) इसी क्रम में सोSहम याने 'वह मैं हूँ' का मंत्र भी विचारणीय है जो इशा उपनिषद एवं अन्य उपनिषद में किसी ना किसी रूप में आया है. यह एक बृहद विषय है इसे भी प्रेम के संदर्भ में किसी और रचना में प्रयोग हो इसकी मनसा है.
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