हाले दिल...
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क्या जाने कोई भी पूरा
हाले दिल नदिया का
रखना होता है जारी मुससल
यह लम्बा उतार चढ़ाव का
बस एक ही तड़फ लिए
मिलना है सागर से
और गँवा देना है वुज़ुद अपना...
पहाड़ का तो क्या
दम्भी और उज्जड़
खड़ा रहता है
अड़ा रहता है
उसी जगह अपने पाँव रोपे
कहाँ आभास उसे तरलता का
कहाँ अन्दाज़ उसे सरलता का...
पहचानती है
नदी को गर कोई तो वह है
उसकी सखी नाव
सदा निबाहती है साथ उसका
चलते हुए भी रहती है संग में छूकर
जोड़े रखती है ख़ुद को थम कर
लंगर में बंध कर...
सच तो यह है
जो दिखता है वह होता नहीं
जो होता है वह दिखता नहीं
कलम और शब्दों का क्या
कुछ को कुछ साबित कर दे
पहुँचता है मगर सीधा दिल तक
आंका हो जो तुमने
किसी सादे केनवास पर...
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