Monday, 1 March 2021

शउर मजबूरी के,,, : विजया


शउर मजबूरी के...

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उसके जन्मने से 

बहुत पहले ही 

बिगाड़ दिया था समाज ने 

संतुलन अपनी 

माप जोख की तराजू का 

और 

समतलता उस ज़मीन की भी 

जहाँ उसके डगमगाते कदम 

सीख सकते शायद 

अपने पावों पर खड़ा होना 

और 

चल भी पाना 

एक स्थिर चाल से...


समाज की छद्म नैतिकता ने 

तोड़ डाले थे वो बाजू 

जिनके साथ 

उसके कच्ची माटी जैसे 

मस्तिष्क को 

गढ़ा जाना था 

और 

आकार पाना था,

ज़िम्मा  था जिन पर 

न्याय करने का 

उन्ही बहुसंख्यको ने 

सुना दिए थे सारे फ़ैसले 

ख़िलाफ़ उसके...


नाममात्र के अधिकारों 

और चुप्पी की आवाज़ लिए 

वो नाबालिग गदराया जिस्म 

हो चला था 

एक दोहरा ख़तरा 

ख़ुद के लिए भी,

पहनना औंढना

बोलना चलना 

हँसना मुस्कुराना 

पढ़ना लिखना 

खेलना कूदना 

अपने चुनाव ख़ुद करना 

शिद्दत से जी लेना 

सिर उठा कर चलना 

सब के लिए दफ़ाएँ थी 

समाज और धर्म के 

पेनल कोड में...


फ़तवे 

हमेशा से भी ज़्यादा 

एक से ही थे 

सर्वसम्मति से, 

गुनहगार हर हाल में 

लड़की ही होती है, 

अगर बढ़ती है तेज़ी से तो भी 

या छू लेता है कोई उसे बेढंगा होकर 

या कर बैठता है जबर कामांध हो कर,

इसीलिए तो 

सीख लेती है लड़कियाँ 

शउर मजबूरी के 

पा लेती है महारत 

शर्मिंदा और दबा कुचला होने में 

हो जाती है हावी उस पर 

हुनरमंदी दर्द छुपा लेने की,

क्यों ना हो ऐसा आख़िर 

गलती उसकी ही तो होती है 

दुनिया में आने के 

पहले से ही

और दुनिया में आने के बाद भी...

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