मेरी मर्ज़ी....
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करते हैं हम बहुत कुछ
अपने दिलो ज़ेहन के ऊपर
कभी किसी की ख़ुशी के लिये
जो होता है अपना,
कभी किसी के कहने से
जिस पर करते हैं भरोसा,
कभी किसी मज़बूरी से
नहीं होता जो कोई चारा,
कभी इस सोच के साथ भी
क्या कहेंगे लोग ?
सुनते हैं ये बेबाक़ इजहार
"मेरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी"
उन मुँहों से जो शायद
नहीं समझ पाते
ज़िंदगी नहीं है नाम
बस अपनी मर्ज़ी का करने का,
हर अनचाहा हो जाना
होता नहीं सबब यल्ग़ार का,
इंक़लाब नहीं सरकशी है
आँख मूँद कर ख़िलाफ़त करना,
आज़ादी बिना ज़िम्मेदारी के
नासूर है अना के लगाए ज़ख़्म का
नहीं कहती मैं
सहे जाए हम ज़ुल्मों सितम ज़माने के
मगर रुक कर सोच तो लें
बसा है ख़ुशियों का ज़हान
उस सिरे से आगे
जहाँ से हुआ करती है शामिल
बिना किसी दलीलो-मन्तिक और जवाज के
मर्ज़ी 'उसकी'
कभी हमारी मर्ज़ी के साथ
कभी हमारी मर्ज़ी से कहीं आगे...
(सबब=कारण, यल्ग़ार=आक्रमण, इंक़लाब=क्रांति, सरकशी=उद्दंडता/बलवा, अना=Ego, ज़ख़्म=घाव, नासूर=हमेशा रिसने वाला घाव जो कभी भी ठीक नहीं होता, सिरा=बिंदु/point, दलील=argument/तर्क, मन्तिक=युक्ति/logic, जवाज़=औचित्य/justification)
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