अद्वैध--
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सांझ तो अब
ढलने को आई,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?
सहरा में वो
मुझे मिला था
चमन में
रंगीं फूल खिला था,
मैं थी वैसी
क्या
दिख ना पायी,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?
लिखी थी मैंने
नज्में सारी,
गायी थी
गज़लें भी
मनोहारी,
इकरार इसरार
सभी थे मेरे,
फिर भी मैं क्यूँ
टिक ना पायी,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?
माला हो ना सकी
क्यों पूरी,
टूटी बिखरी
रही अधूरी,
किसने किस से
नज़रें फेरी
आज तलक मैं
समझ ना पायी,
क्यों ना
नग्मा मैं लिख पायी ?
मैं इष्ट आज
आराधक मैं हूँ,
माली और फुलवारी
मैं हूँ,
द्वैत नहीं/
नहीं है
माया,
मुझमें उसका
नूर समाया,
हिय अद्वैध्य ने
धूनी रमाई,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?
(अद्वैध्य=जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता)
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