तस्वीर तेरी फलती है !
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कैनवास इसी पुरातन प़र
तिरछी कूची चलती है
कुछ भी मांडना चाहूँ तो
तस्वीर तेरी फलती है !
दर्पण कितने लायी चुन कर
प़र अक्स तेरा ढलता है,
लहरें करवट ले कोई भी ,
चाँद तू ही बनता है,
पहलू में सोया हो कोई,
रात तेरी ढलती है !
कितनी लाचार मेरी उंगलिया
अभ्यास नया कैसे हो,
तुलिका का भी दोष नहीं
सोचे जैसा वैसे हो,
शक्ल तेरी में कैद है तन मन
कब मेरी क्या चलती है !
कितनी बार सोचा मैंने था
दूजा एक चित्र बनाऊं,
मन के माफिक हो सके जो
ऐसा कोई मित्र बनाऊं,
दीप, तेल, बाती हो कोई
ज्योत तेरी जलती है !
पहले अपनी छवि को अंकवाने
बहुतेरे इच्छुक आये,
प़र अब मुझको दीवानी कहकर
पास ना कोई आये,
इस एक निंदा में देखो
निष्ठा मेरी पलती है !
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