Saturday, 23 July 2022

जहां चाहो वहाँ तुम तो बरसो....: विजया

 

जहां चाहो वहाँ तुम तो बरसो...

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तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो,तहाँ तुम बरसो 

सर्वांग तृप्त संतोषी तुम 

जहां मन हो वहाँ को स्पर्शों 

पर होती हूँ मैं अचंभित 

जलमय हो,बादल हठीले 

फिर तुम क्यों यूँ ही तरसो ?

तुम सावन के बादल 

जहां चाहो,

वहाँ तुम तो बरसो...


संकीर्ण स्वार्थी चिर प्यासे 

जब तब है, वो जल को खोजे 

कितना भी पिला दो उनको 

दिखलाते ज्यों नित हो रोज़े

ना जाने आस्तीनों में क्यों 

तुम फिर भी,

संपौले पोसो 

तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो,

वहाँ तुम तो बरसो...


उजड़ों को 

तुम ने खूब बसाया 

तुम ने तो सर्वस्व लुटाया 

कुंठाओ से ग्रसित होकर 

हीनत्व किसीने है दरसाया  

मैं हूँ आग बबूला चाहे 

भले ना चाहे उनको कोसो 

तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो 

वहाँ तुम तो बरसो...

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