कहाँ खड़े हैं हम आज ?
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देखा करते थे
हम भी सपने सुहाने,
होकर लहरे
तलाशते अपनाते
हर मौक़े को
पहुँचने किनारों के पास,
पहुँच कर लौटना..
फिर पहुँचना...
बार बार लगातार,
लगता था नाकाफ़ी मगर
इतना सब पा जाना भी...
देखा करते थे
हम भी सपने सुहाने,
आकाश को लाल रंगने के
अपने जलते हुए जुनून से,
ताप था जिसका
सूरज से भी ज़्यादा,
बुझ जाते थे
ये शोले भी भड़क कर,
मगर आह !
वो लुत्फ़ और वो सुकून !!
देखा करते थे
हम भी सपने सुहाने,
आंक सके आग से
गा सकें संग हवा के
बेफ़िक़्र दीवाने हो कर,
और कर रही हो आवा जावी
आवारा रूहें
गुजरते हुए क़रीब से हमारे...
देखा करते थे
हम भी सपने सुहाने,
कैसे पीछा किया करता था चाँद
ताकतवर सूरज का,
क्या मिला था मगर उसको
बड़ी मशक़्क़त के बाद ?
बस टिमटिमाहट
नन्हें कमजोर सितारों की...
हम ही तो थे ना
जो देखा करते थे तारे
एक दूजे की आँखों में,
सोचते हुए
कोई नहीं है बढ़ कर हम से,
मगर कौन हैं हम आज ?
कहाँ खड़े हैं हम आज ?
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(Thanks to Saheb yane Vinod Singhi ko
हर सपने और हक़ीक़त में साथ रहने के लिए
आज तो इस नज़्म से सीमित छेड़ छाड़ करने के लिए.)
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