'सुख के सब साथी दुःख में ना कोय'
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होती है अनुभूतियाँ
बिम्ब मनस्थितियों की
निरपेक्ष समझ लेते हम
बातें परिस्थितियों की,,,
समीप हो स्वयं के
हम समीप सब को पाते
आपे में ना हो ख़ुद जब
सब दूर ही नज़र आते,,,
उत्साह का है उत्सव
पर्व है प्रसन्नता का
तन मन अति मुदित से
प्रसरण हमारी निजता का,,,
सुख की इस घड़ी में
विधेय है स्पंदन
है घटित प्रेम मन में
अभिवृद्धित है आकर्षण,,,
सहभागिता सम अनुभूति
संग सब का है बढ़ाती
सहज सरल जीवन पर
रंग चटक से चढ़ाती,,,
खिलते हैं पुष्प जैसे
हम स्वयं मैत्री प्रांगण में
झूमते हैं हम स्वयं ही
भीड़ के नृत्यांगन में,,,
घन दुःख के हैं आच्छादित
गरजे तड़ित भयानक
दूर जब हम निज स्व से
पास आये क्यों कोई यकायक,,,
विपदाओं से हो अंतराल
होता है लक्ष्य हमारा
वांछित हैं साथ सबका
किया स्वयं से है किनारा,,,
कुछ भी नहीं बिन मूल्य
इस आदान प्रदान संस्कृति में
संगी स्मित के सारे
नहीं साथ खिन्न आकृति में,,,
होकर तटस्थ हम देखें
भुला अनुकूलन के दीर्घ क्रम को
'सुख के सब साथी दुःख में ना कोय'
कर सकेंगे दूर तब इस भ्रम को,,,
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