तुम तो आग हो.....
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बताया था तुम ने
समंदर का वह सब कुछ
जो प्यारा है तुम्हें
उसका फैलाव
उसकी गहरायी....
कहा था तुम ने
अपने उस ख़ास सलीक़े से
"कितना ग़ज़ब है पानी
देखो ना !
कितना मज़बूत है
आज़ाद ख़याल भी
किस तरह ये लहरें
आती है - जाती है अपनी मर्ज़ी से
जो कुछ भी है यह सागर
मैं तो
उसका आधा तक नहीं....."
कहा था मैंने,
"सही हो तुम
मगर कुछ हद तक,
पानी तो बस बहा ले जाता है
क्या हुआ थोड़ा सा भिगो देता है
नहीं हो सकती तब्दील आग
कभी भी पानी में,
लील लेती है वह ख़ुद में
आख़िर में बस दिखती है
फ़क़त राख,
किसी भी नज़रिए से
बेहतर होती है आग पानी से
महज़ नम कर देने से कहीं ज़्यादा,
'धारण' जो कर लेते हो तुम
नागा फ़क़ीरों की तरह
हर 'भस्म' को ख़ुद पर
अपना लेते हो उसे अपने 'होने' में
बेलाग होते हुए भी
अपनी हर छुअन मुहैय्या कराते हुए...."
प्रीतम ! तुम तो आग हो
सागर की हर ख़ासियत समेटे हुए,,,
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