शब्द सृजन-बदलाव
===========
बदलाव,,,,,
####
हो गया है पुनः प्रवेश मेरा
शीशमहल में
यह मेरा ही जीवन तो है
वस्तुतः मेरे ही रूपकों का विस्तार
जो प्रतिबिम्बित है
यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ इस
आइना घर में,
उलझ सा गया हूँ मैं दर्पण के जालों में
खोज रहा हूँ कुछ अनदेखा इन्हीं दर्पणों में
निरखते हुए कई कोणों से,
किंतु नहीं देख पा रहा हूँ कुछ भी
केवल मात्र स्वयं के,,,,,
क्या मैं स्वयं को देख रहा हूँ विगत में
या मेरी दृष्टि है भविष्य की ओर,
देखे जा रहा हूँ मैं एकटक
दर्पण की सुरंग में ये सारे 'स्वयं'
दिखा रहे है जो बिंब
भावों और अनुभूतियों का
क्रमशः बुरा और बुरा,,,
घबरा जाता हूँ देख कर
स्वयं को स्वयं में जकड़ा हुआ
भयावह और क्षुद्र स्वार्थी सा
चाहता हूं इस उदास नीरस प्रतिरूप को
खंडित कर
देख पाऊं स्वरूप अपना
आज और अभी के इस पल में
लेकिन हो सकेगा क्या यह
इस शीशमहल में,,,,,,
हो भी तो सकता है संभव
एक बदलाव
इन सब 'स्वयमों' से परे
हो कोई ऐसा दिन
जब मैं होऊँ तट पर
और शांत हो जलधि
आकाश हो हल्का सा जामुनी रंग का,
नहीं डूब रहा हो प्रेम किसी शून्य मे,
कर दूँ विसर्जन अपनी पुस्तक का
सूखे होंगे पन्ने जिसके
क्योंकि नहीं टपकाऊँगा अब आँसू उनमें
नहीं होंगे दर्पण
होगा बस समुद्र
आधे प्रकाश में झिलमिलाती जम्बूमणि जैसा
होगा मेरा मस्तक तुम्हारे कंधे पर टिका
होगा ऐसा ही मिलन हमारा
मुसकुराएँगे हम उस अमूल्य क्षण में
बिना किसी भय के,
होंगे हम साथ साथ सागर किनारे
लिखेंगे फिर से एक खंड काव्य शाश्वत जीवन का
बरसेंगे निकल निकल कर चाँद और तारे
झूम उठेगा जब आकाश
छिटक जाएगी हर ओर चाँदनी प्यार की
भर जाएँगे घाव सब दुनिया ने जो दिये
कोई एक पल तो होगा कम से कम ऐसा
जो नहीं घूर रहा होगा मुझ को
उस शीशमहल के अंदर से,,,,
===========
बदलाव,,,,,
####
हो गया है पुनः प्रवेश मेरा
शीशमहल में
यह मेरा ही जीवन तो है
वस्तुतः मेरे ही रूपकों का विस्तार
जो प्रतिबिम्बित है
यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ इस
आइना घर में,
उलझ सा गया हूँ मैं दर्पण के जालों में
खोज रहा हूँ कुछ अनदेखा इन्हीं दर्पणों में
निरखते हुए कई कोणों से,
किंतु नहीं देख पा रहा हूँ कुछ भी
केवल मात्र स्वयं के,,,,,
क्या मैं स्वयं को देख रहा हूँ विगत में
या मेरी दृष्टि है भविष्य की ओर,
देखे जा रहा हूँ मैं एकटक
दर्पण की सुरंग में ये सारे 'स्वयं'
दिखा रहे है जो बिंब
भावों और अनुभूतियों का
क्रमशः बुरा और बुरा,,,
घबरा जाता हूँ देख कर
स्वयं को स्वयं में जकड़ा हुआ
भयावह और क्षुद्र स्वार्थी सा
चाहता हूं इस उदास नीरस प्रतिरूप को
खंडित कर
देख पाऊं स्वरूप अपना
आज और अभी के इस पल में
लेकिन हो सकेगा क्या यह
इस शीशमहल में,,,,,,
हो भी तो सकता है संभव
एक बदलाव
इन सब 'स्वयमों' से परे
हो कोई ऐसा दिन
जब मैं होऊँ तट पर
और शांत हो जलधि
आकाश हो हल्का सा जामुनी रंग का,
नहीं डूब रहा हो प्रेम किसी शून्य मे,
कर दूँ विसर्जन अपनी पुस्तक का
सूखे होंगे पन्ने जिसके
क्योंकि नहीं टपकाऊँगा अब आँसू उनमें
नहीं होंगे दर्पण
होगा बस समुद्र
आधे प्रकाश में झिलमिलाती जम्बूमणि जैसा
होगा मेरा मस्तक तुम्हारे कंधे पर टिका
होगा ऐसा ही मिलन हमारा
मुसकुराएँगे हम उस अमूल्य क्षण में
बिना किसी भय के,
होंगे हम साथ साथ सागर किनारे
लिखेंगे फिर से एक खंड काव्य शाश्वत जीवन का
बरसेंगे निकल निकल कर चाँद और तारे
झूम उठेगा जब आकाश
छिटक जाएगी हर ओर चाँदनी प्यार की
भर जाएँगे घाव सब दुनिया ने जो दिये
कोई एक पल तो होगा कम से कम ऐसा
जो नहीं घूर रहा होगा मुझ को
उस शीशमहल के अंदर से,,,,
No comments:
Post a Comment