Wednesday, 16 October 2019

हीन भाव : विजया

शब्द सृजन : कमतरी
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हीन भाव (अहसासे कमतरी)
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सोचती हूँ कभी कभी
करूँ क्या मेरे उस हिस्से का
जो बार बार कहता है
चिल्ला कर
"मैं हूँ कुछ तो....मैं हूँ विशेष
मैं हूँ निराली...मैं हूँ मेधाशाली..,,

कभी कभी सोचती हूँ
कहलाती हूँ मैं
नन्हा सा तारा नभ में गुम
खोयी हुई चमक लिए
हज़ारों लाखों की भीड़ में...

सोचती हूँ कभी कभी
सर्वोत्तम विकल्प है मेरे लिए
लम्बा सा मौन...
क्यों परेशान होना
क्यों झंझट मोल लेना
कुछ भी करने के लिए,
क्या रखा है मेरे ख़ातिर
लोगों के
इस निर्दय शोर शराबे वाले
घने से झुंड में...

कभी कभी मैं मेरे अपनों को
किए डालती हूँ सशंकित
अपने होने के बारे में भी,
मैं क्यों ? अभी क्यों ? यहाँ क्यों ?
अस्पष्ट है इन सब के कारण मेरे लिए
इसीलिए
कुछ भी तो नहीं रह गया है
कहने को मेरे पास....

क्यों सुने मेरी ?
कहा किसने है उन्हें
मेरी परवाह करने को ?
यह जो दुनिया है ना
बहुत संगदिल,
कुछेक प्रतिभाएँ ही तो
चमक पाती है यहाँ,
क्या रखा है यहाँ मेरे लिए...

सोचती हूँ कभी कभी
क्या किया जाय
मेरे जीवन के उस भाग का
जो तरस रहा है..तड़फ रहा है
खिन्न है...उदास है
होकर ग्रसित हीन भाव से

कह दो ना
प्यार है तुम को मुझ से
दिलाओ ना मुझे भरोसा
कि तुम करते को परवाह मेरी
मत गिरने दो मुझे इन सघन अंधेरों में
कहो ना होंगे तुम संग मेरे
हर क्षण हर घड़ी
और दोगे साथ मेरा
हर हाल में....

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