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Dedicated to my Loving Companion, friend, philosopher and guide who introduced me to many an unknown aspects of human life)
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होते हैं ये समाजी रिश्ते
स्पाउसेज के भी
माटी के सूखे दीये की मानिंद
होता नहीं जो रोशन
पड़े ना जब तक तेल
मुहब्बत,समझ
और एहतिराम का...
बाज़ वक़्त ये रिश्ते
होते हैं खड़े
सहारे बैसाखियों के
जिन्हें कह देते हैं
मज़हब, दौलत, कतरे ब्योंते कानून
दे सकते हैं
जो सुख गुलामी का,
नहीं मिल पाता है मगर
वरदान मन की पीड़ा का
एहसास आज़ादी का...
अगन हवन की
थमा देती है हाथों में
एक अदद रिश्ता,
नहीं पहुँच पाती मगर
कभी भी लौ उसकी
मन के अँधेरे कोनों तक,
और इस तरहा
रिश्तों की किसी भी हद से
बाहर हो जाता है
हर यक कोना
वुज़ूद का.....
रस्मे कसमे और कायदे
बाँध सकते है
दो जिस्मो को,
रख सकते हैं वे किरदारों को
चार दीवारों से घेर कर
नीचे एक छत के
मगर
खातिर रूहों के जुड़ाव के
ज़रूरी है मिलना
दिल ओ जेहन का....
कितना अजीब है
यह रोज़गार शादी का
शौहर और बीवी
लग जाते हैं
अपने अपने ओहदों पर
और
बिना किसी तरक्की के
बने रहते हैं ताजिंदगी
बीवी और शौहर
मानो बस यही है
आगाज़ ओ आखिर
इस ज़िन्दगी का...
काश हो जाये
खाविंद और मन्कूहा से
दो दोस्त वो दोनों
और
बन पाये दोस्त से
खुदा फिर,
मनाने को जश्न
धरती पर
सूरज, चाँद सितारों के नीचे
दो ज़िस्म और दो रूहों के
मिलन का...
(मन्कूहा : ब्याहता)
(यह राईट अमृता प्रीतम जी की कहानी 'मलिका' और उपन्यास 'एक खाली जगह' से प्रेरित है. अमृताजी हम सब की मोस्ट फेवरिट रचनाकारों में से एक हैं.)
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