इसमें कितनी नैसर्गिकता/प्राकृतिकता/स्वाभाविकता/सहजता है और कितना अनुकूलन, नहीं जाते इस डिटेल में...देख लेते हैं जस का तस जनरली 😊
स्त्री का प्रेम
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स्त्री शरीर में
एक रूप होता है
पत्नी, प्रेमिका या सहचरी का
एक और रूप होता है
माँ का....
पति या प्रेमी के साथ
लाख सिद्धांतों की बातें हो
रिश्ता होता है
आधारित अपेक्षाओं के
और
संतांन के लिए
होता है पूर्णत: अपेक्षा विहीन....
बड़ा विचित्र होता है
प्रेम स्त्री का,
सह पुरुष के संग
हो जाता है कामना प्रबल
नहीं होती है संतुष्ट पूर्ण,
संग संतान
वही होता है वात्सल्य प्रबल
ना पाकर कुछ भी
माँ के रूप में
हो जाती है वह सहज संतुष्ट....
देखना चाहती है स्त्री
अपनी संतान को
उनके पिता से आगे बढ़ते,
भोगना चाहती है
पति की समृद्धि का सुख
करती है गर्व अपने वैभव पर
प्रचारित भी करती है
किंतु रहती है फिर भी अतृप्त....
लेकर पति का समर्पण
हो जाती है
समर्पित संतान के लिए
बन जाती है पक्षकार
संतान की पति के सम्मुख
झेल सकती है कोई भी कष्ट
संतान के लिए
जाकर परे अपने अहंकार से
स्वीकार सकती है
होना स्वच्छंद बच्चों का
किंतु पति का नहीं
रहेगी प्रयासरत और अधिकांशतः सफल
पति को अटकाए रखने में
डोर दृश्य और अदृश्य
रहेगी हाथों में उसके....
सार को देखा और समझा जाय
नहीं लगेगा अच्छा
निकम्मा पति उसको
किंतु नहीं लगेगी बुरी
संतान निकम्मी उसको....
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