Sunday, 3 April 2022

अपेक्षा के दर्शन की खींच तान : विजया

 


अपेक्षा के दर्शन की खींच तान 

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अपेक्षा पूरी ना हो तो दुःख होता है, यह कोई बहुत बड़ी शास्त्रीय बात नहीं. हम में से हर कोई किसी ना किसी तरह इस तथ्य का अनुभव जीवन में बार बार करता है. 


आपसी अपेक्षाएँ सम्बन्धों का आधार बनती है, एक दूजे से share करने और एक दूसरे का care करने की सबब बनती है.


अपेक्षा को नकारना मानवीय नहीं है. हाँ उसकी वजह से हमें दुःख न पहुँचे या कम से कम हो या हो भी जाए तो हम कैसे उस से बाहर आएँ यह देखने की बात है. संतुलन सम्भव है यदि हमारा जज़्बा देने का रहे, उदारता और क्षमाशीलता हमारे स्वभाव में शुमार हो, हम होशमंद हों और जिस भाव से देने वाले ने दिया उसके लिए अहोभाव और कृतज्ञता दिल में हो.


जिन्होंने स्वयं अपेक्षाओं पर क़ाबू पा लिया हो या जिनकी दृष्टि संतुलन की हो वे सामान्य व्यवहार और आपसी सौहार्द को 'अपेक्षा दुखकारी" "अपेक्षा रखने वाला हेय" आदि दृष्टियों से नहीं देखते. जिन्होंने इस सिद्धांत की  व्यापकता को आत्मसात् किया हुआ होता है उन्हें बिलकुल ज्ञात होता है कि कैसे कहाँ रेसिपरोकेट किया जाना चाहिए. 


हाँ इस नटखट जुमले : "खुद करे तो रास लीला, कोई और करे तो करेक्टर ढीला" वाली जनता का intellectual cover up मात्र होता है या आध्यात्मिक होने का ढोंग.


जीवन की अपेक्षाजनित विसंगतियों का तौड़ स्वविवेक और स्वयं का ही जागरूक साक्षी भाव है, जिसमें इसका संतुलन निहित है. उदाहरण के लिए कृष्ण के जीवन की समग्रता इस संतुलन की एक प्रतीक है.


हमारे दादीसा जिनका पूरा जीवन ही निस्वार्थ निश्चल प्रेम और तदनुरूप अपेक्षा के संतुलन का जीता जगता उदाहरण था, उनसे सुनी कहानियों में मेरी पसंदीदा एक जो विषय के लिए प्रासंगिक है, प्रस्तुत कर रही हूँ.


एक बेटा पढ़ लिख कर बहुत बड़ा ज्ञानी हो गया. गुरुकुल में किसी पोंगे पंडित ने किताबों से पढ़ा दिया कि सब रिश्ते बेकार...मोह दुखों का मूल...किसी ने तुम्हारा कुछ उपकार किया उसको उसे भूल जाना चाहिए, अपेक्षा रखना अच्छी बात नहीं. उसकी माँ बेचारी को वात्सल्य की अनुभूति थी और उसका विद्या ददाती विनयम का पाठ भी सुना हुआ था लेकिन बेटे ने शायद भृथहरी का वैराग्य शतक पढ़ लिया था...भोजन, आवास, सेवा टहल सब कुछ ग्रहण करता किंतु फिर भी माँ के साथ दम्भ से निरादर करता रहता.  देखभाल करना तो दूर  ठीक से प्रणाम पाती तक भी न करना पंडित जी के ज्ञान का बिम्ब हो गया था. पिता असमय संसार छौड़ चुके थे, निरीह माँ....🥲


माँ ने राज दरबार में गुहार लगायी. बेटे को तलब किया गया. बेटे का बयान कि मेरी उत्पति एक जैविक कार्य था, पालन पोषण माँ का एक कृतव्य...माँ की महानता इसी में है कि मुझ से कोई अपेक्षा न रखे...अपने तर्कों के पक्ष में शास्त्रों के कई उद्धरण भी उसने दिए, साक्षर जो ठहरा ऊपर से बुद्धि जीवी.


राजा ने कहा : अरे ख़याल कर यह माँ तुम्हें नौ महीने पेट  में समाए रही, कितना कष्ट हुआ था उसे तुम्हें  जनने और पालने में. पंडित बेटा बोला यह कौन बड़ी बात, हमेशा ऐसा होता आया है, युग युगांतर से. मेरी भावनाएँ और व्यवहार मेरी मर्ज़ी.


भूल गया था अपने तथाकथित ज्ञान के घमंड में माँ का किया सब कुछ.


राजा को लगा पंडित को सबक़ सीखाना  चाहिए. आदेश हुआ पंडित जी एक शिशु के वजन का पत्थर अपने पेट पर बांध कर नौ महीने बिना किसी हिलो हुज्जत के चले फिरे, सोए उठे, दैनिक कार्य करे.

कहना नहीं होगा चंद दिनों में ही पंडित की टाँय टाँय फिस्स. उसे एहसास हुआ अपनी गलती का...और माँ के चरणों में गिर गया.


मानवीय सम्बन्धों के खेल के कुछ अलिखित नियम होते हैं जिसे हम व्यवहार संवेदन कह सकते हैं. किसी अपने की अपेक्षा हो या नहीं हो हमें जो करना वांछित है वह करना ही चाहिए ना कि पंडित बेटे की तरह अपने ज्ञान की वमन करनी चाहिए.


जहां समझ और संवेदनशीलता होती है वहाँ  अपेक्षा और उसके असंतुलन से हुई पीड़ा के अवसर न्यूनतम हो जाते हैं. कहाँ कुछ होता है सौ फ़ीसदी पर्फ़ेक्ट, फिर यह अपेक्षा के दर्शन की खींच तान क्यों ?


मैं एक ज़मीन से जुड़ी होम मेकर महिला हूँ, जिसने व्यक्ति और समूह के जीवन को क़रीब से देखा है. ऐसे वातावरण में स्वयं का विकास किया है जहां प्रेम,करुणा, सनिग्धता, उदारता और शालीनता का मूर्त रूप देखा और खुद भी जीया है. मुझे इसे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि मुझे देने और पाने दोनों में ही प्रसन्नता की अनुभूति होती है. अपने और अपनों से अपेक्षा रखते हुए भी मैं अपने आंतरिक और बाह्य प्रगति पर निरंतर अग्रसर हूँ क्योंकि मैने अपेक्षा भाव को समझा है उससे उत्पन्न पीड़ाओं को संयत होते भी देखा है. हाँ मैने  अतियों से खुद को बचाते हुए अपने हर भाव और जीवन व्यवहार में अनवरत शोधन संशोधन और संतुलन को अपनाया है, और उसके परिणाम सुखखारी ही पाए हैं. अपेक्षा होना स्वाभाविक है, अपेक्षा से गुजरना ग़लत नहीं उसे लेकर बैठ जाना वांछित नहीं.


एक शांत चित्त की दृष्टि और सृष्टि बिना विचलित हुए जीवन के प्रत्येक आयाम को उसके सम्यक् रूप में देख सकती है.

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