रिश्तानामा...
++++++++
देखा है रिश्तों को
फूलों की तरह खिलते
बारिश की तरह बरसते
चाँद की तरह शीतल
सूरज की तरह गर्म
कपास की तरह नर्म...
देखा है रिश्तों को
बनते बिगड़ते
एक तरफ़ा निभते
घुट घुट के जीते
अंधेरे कोनों में रोते
नक़ली मुस्कान लिये
होठों को सिये
सूखी लकड़ी की तरह धू धू धधकते
गीली लकड़ी की तरह सुल सुल सुलगते...
देखे हैं मै ने
दिल से जुड़े रिश्ते
दीमाग से बने रिश्ते
इज़हार वाले रिश्ते
ख़ामुशी के रिश्ते
रूहानी रिश्ते
जिस्मानी रिश्ते....
समझा है मैने
केंद्र और परिधि के प्रेम का अंतर
परिचय और अंतरंगता का अंतर
खून के और बनाए हुए रिश्तों का अंतर
आंतरिक और बाह्य का अंतर
पसंदगी और प्यार का अंतर
मैत्री और लोकव्यवहार का अंतर....
सभी में जो जो पाया कोमन, वह है :
रिश्तों में महज़ लेने की फ़ितरत से बचना होता है
रिश्तों में देने का जज़्बा रखना होता है
रिश्तों को सहेजना और सम्भालना होता है
रिश्तों के एहसास को महसूसना होता है,
बदलती है हर शै इस आलम में
रिश्तों की बुनियाद को मगर
टूटने और बदलने नहीं देना होता है,
लाख कहे कोई
सहज नैसर्गिक निष्पर्यत्न है सम्बंध हमारे
जी कर देखा है शिद्दत से सम्बन्धों को
इन्हें तो दिलोदीमाग से निभाना ही होता है...
No comments:
Post a Comment