अत्तर रूहानियत का..
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नहीं लिख पाता प्रेम कोई
कोरे काग़ज़ पर कलम से
हो गया है निशब्द
जिसे भी हुआ हो अनुभूत प्रेम...
इंद्रियाँ भी है
वरदान अस्तित्व का
किंतु मिलन का मतलब
महज़ उस से ही लागाए कोई तो
मुहब्बत का स्वाँग भर है वह
अल्फ़ाज़ के लबादे में...
प्रेम की ख़मखयालियों में
फिसलकर कोई
अनुकूल प्यार ढूँढने का यात्री हो जाए,
तो हक़ीक़त में रखता है उम्मीद
वासनाओं को पूरा करने की
सुविधाभोगी प्रेम के आवरण में...
होता है अवमूल्यन
प्रेम की शुचिता आत्मिकता का
जहां हो सम्बन्धों का उदेश्य बस
लक्ष्यपूर्ति, महत्वाकांक्षा,
अपेक्षा, सुविधा,
देह और भौतिकता का आकर्षण...
देह स्पर्श की तरंगों का
उत्तेजन और उत्साह
एक निवारण है दैहिक भूख का
किंतु इसमें प्रेम कहाँ ?
छू जाए आत्मा के तेज को
तो कर सकते हैं सम्बोधित
उस छुअन को
प्रेम कह कर
देहमय भी देहतर भी...
मोहताज नहीं होता है प्रेम
दुनियावी रस्मों का
पंडित और पुरोहित की दिलायी
अर्थ खोये रिश्तों की क़समों का...
प्रेम तो है अत्तर रूहानियत का,
ख़ुशी और ग़म
पीड़ा और संवेदना
तन और मन को साथ लिए
एक नूर शख़्सियत का...
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