Thursday, 19 March 2015

जीवन : विजया

 जीवन 
+ + + +
ना जाने क्यों 

च्युत हो जाती 
सोची समझी भाषा 
जब जब हम 
लिखने लगते हैं 
जीवन की परिभाषा,
साँसों को 
गिनते रहना 
काम नहीं 
जीवन का, 
मात्र निहारना 
भरे जाम को 
नाम नहीं 
पीवन का,
सहज सजग मानव 
सर्वदा
हर क्षण को 
जीया करता है 
पल प्रतिपल 
प्रभु प्रदत वो 
सुधा पीया करता है, 
कृत्यों को 
संगत जतलाने 
प्रयास 
निरंतर होते हैं, 
मिथ्या वाक् प्रवाक 
क्रिया में 
मत मतान्तर होते हैं, 
जीवन है 
एक सुमन सुहाना 
महक सदा लेते रहना 
व्यर्थ विश्लेषण 
करते करते 
नोंच उसे तुम ना लेना,
समग्र स्वीकृति 'होने' की 
है मन्त्र अमोघ
जीवन का 
सजग वृति से ही तो 
संभव
रक्षण इस उपवन का...

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