Wednesday, 4 March 2015

मन (विजया)

मन 
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मन मेरा 
बड़ा घुम्मकड़ 
नहीं रहता स्थिर 
नटखट बालक की तरह,
कभी धरती पर
कभी पाताल में
और कभी कभी तो
लगने लगता है
उड़ने यह
आकाश में..
बहा देता है कभी तो
स्त्रोत अपनत्व के
तो कभी जताता है
अभाव परिचय का भी
राग-द्वेष मोह-माया
सारे ही खेल खेलता है
यह निगौड़ा
मिल जाता है कुछ तो
हो जाता है खुश
और छिन जाने पर
निहायत ही नाखुश...
स्वार्थ के
संकीर्ण चिंतन का
चश्मा चढ़ा कर
देखता है यह मन,
शयद ही कभी
देख पाता है यह
होकर विमुक्त
समस्त आग्रहों से.....
सुन सुन कर बातें
धर्मोपदेशकों की
और पढ़ पढ़ कर
मोटे मोटे शास्त्र,
खींचते हैं
जब जब लगाम
इस बिगडेल घोड़े की
दौड़ने लगता है
तब तब यह
और भी तीव्र,
नहीं रहता है यह
नियंत्रण में...
हो कर साक्षी
जब जब देखते हैं
इसको
मानने लगता है
तब सुझाव और निर्देश,
प्रतीक्षा है
उस घडी की
हो जायेगा तब
दोस्ताना मुझ से
मेरे मन का,
और बस जाएगा तब
मेरी प्रज्ञा में आकर
स्थिरता का आनन्द...

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