Wednesday, 8 June 2022

अबाधित सारतत्व...

 अबाधित सारतत्व...

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गहरे तक अपने ही भीतर

लगाता हूँ जब गोता,

समझ पाता हूँ अपने उस पहलू को 

जो होता है विद्यमान हमेशा 

और बदलता नहीं,

यही है स्व जो जड़ है मेरी 

जो है सारतत्व मेरा...


नहीं हूँ मैं विचार अपने 

बस जानता हूँ मैं अपने विचारों को,

नहीं हूँ मैं भाव और संवेग अपने 

बस करता हूँ महसूस अपने भावों और संवेगों को,

नहीं हूँ मैं  देह अपनी 

बस देखता हूँ दर्पण में बिम्ब उसका

और करता हूँ उसके द्वारा अनुभव संसार का

अपनी इंद्रियों के ज़रिए,

मैं हूँ एक सचेत प्राणी 

होश है जिसे अंतरंग और बहिरंग दोनों का...


आध्यात्म के खिलाड़ियों की 

विशुद्धता और सम्पूर्णता की बातें 

सटीक है अपने स्थान पर,

किंतु मैं तो ठहरा 

इस जीवन को जैसा है वैसा भरपूर जीने वाला,

लगता हूँ सोचने और समझने 

बहुत से रहस्य जीवन के

एक सहज सामान्य मानव की तरह...


जाना है मैं ने अपने ही दो संस्करणों को 

एक है मेरा वैयक्तिक स्व 

जी रहा है  जो दैनदिन जीवन 

शामिल है जिसमे

अर्जन, सृजन, विसर्जन 

सम्बंध, अनुबंध और प्रतिबंध

दूसरा है मेरा सार 'स्व'

जो है पारदर्शी स्फटिक सा 

विशुद्ध चेतन स्वरूप....


किया है मैने महसूस 

हमारा सारतत्व होता है  सर्वथा भिन्न 

हमारे परिवर्तनशील और क्षयशील स्वरूप से,

कभी कभी करता हूँ अनुभूत अपने सार तत्व को 

अंतरंग ऊर्जा के रूप में 

बहने देता हूँ इसे स्वयं से होते हुए 

पहुँच जाने को एक शुभ स्थिति में...


पहुँचना है मुझे 

यथावत की स्वीकार्यता तक 

बिना आलोचनामय निर्णय विभ्रम के

बहने देकर जीवन को  मुझ से होकर 

बिना अवरुद्ध किए  उसकी ऊर्जा धारा को...


नहीं है गवारा मुझे 

नकारना अपने इन दोनों संस्करणों को, 

जगत और ब्रह्म  सत्य है दोनों ही मेरे लिए,

निखिल समग्र अस्तित्व में 

कुछ भी तो नहीं संपूर्ण सत्य या संपूर्ण मिथ्या,

जी पाऊँ मैं जीवन जैसे हो अभिनय कोई 

अभिनय कर पाऊँ ऐसे  जैसे हो जीना कोई...


जाना है मैंने 

केवल मानव ही तो है 

जिसे है अग्रिम आभास और विश्वास अपनी मृत्यु का..

बना लिया है मैने 

इस अटल सत्य के सोच को मार्गदर्शक  मेरा 

जो हो कर स्वयं स्फूर्त 

कर देता है संयोजन मेरी प्राथमिकताओं का

कर देता है समायोजन मेरी दुविधाओं का....


नहीं हूँ सम्पूर्ण मैं 

हाँ पर्याप्त हूँ मैं...

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