दिलबर मेरे !
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तुम्हारा दीवनापन
बौझ सा लगता था मुझ को
तुम्हारा पीछे पड़ जाना
नहीं सुहाता था मुझ को
मगर नहीं जानती
कब हो गया था
मुझे प्यार तुम से....
मेरी गलियों में आना जाना तुम्हारा
अपनी गाड़ी खड़ा कर
बस स्टाप पर इंतज़ार करना
और मेरे कॉलेज की बस में सवार हो जाना
खोजना ऐसी सीट की
देख सको कहाँ से मुझ को
गुनगुनाते थे तुम कोई
मेहदी हसन का गहरे इश्क़ वाला नग़्मा
इस अन्दाज़ में
के जज़्बात भरे अल्फ़ाज़
पहुँच जाए मुझ तक...
सच कहूँ
ग़ुस्से के संग प्यार आ जाता था तुम पे
मगर सोचती थी फिर
क्या मिल सकते हैं नदी के दो किनारे कभी
तुम तालीमयाफ़्ता ऊँचे ख़ानदान के फ़र्ज़न्द
मैं बदनाम गलियों में पली एक यतीम लड़की
जिस का माज़ी था
मगर हाल और मुस्तकबिल नहीं...
मैं लड़ रही थी अपने दिल से
पूछती रहती थी सवाल बहुत से अपने ज़ेहन से
सिर्फ़ होने को मायूस
के नामुमकिन है मिलना हमारा,
लड़े थे मगर तुम हर शै से
ख़ानदान सोसाइटी और सिस्टम से
हर मक़ाम पर हारी हुई लड़की को
जीत कर हर मक़ाम पर
हासिल कर ही लिया है तुम ने...
आज पहली दफ़ा लिया है
मेरा हाथ जो तुम ने अपने हाथों में
महसूस करो मेरी छुअन को
जो कह रही है शिद्दत से
ऐ दिलबर मेरे !
कभी जुदा ना करना इस हाथ को
कभी छोड़ ना देना इस साथ को...
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