आधी अधूरी किताबें
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तेरे क़ुतुबखाने में
सजी पायी है
बहोत सी खुली किताबें
जहां कितना कुछ लिखा है
बिन सफ़हों और सियाही के....
कुछ किताबें है
साँसे लेती
रोती गाती बोलती
हंसती मुस्कुराती सी
जिन से महसूस होता है अपनापन
कुछ लीपी पुती तुड़ी मुड़ी
लिज़लिजी सी
जिन्हें छूने तक से घिन आती है
जिल्द खूबसूरत
मगर दास्तान बदसूरत,
कुछ क़िस्से ख़ुशनुमा ख़ुशगवार
कुछ डरावने ख़्वाबों से
कुछ ज़िंदगी का सच बताते
कुछ पैग़ामे इल्म देते
कुछ सुकूनजदा तो कुछ तूफ़ानी
नहीं पढ़ पाती मैं पूरा किसी को....
सोच कर हैरान हूँ
कैसे पढ़ लेते हो एक एक लफ़्ज़ तुम
डूबाकर खुद को
इन अनगढ़ अनजानी दास्तानों के भँवर में
शुक्र है हर बार एक लम्बा सफ़र तय कर के
लौट आते हो तुम महफ़ूज़
पहाड़ों और जंगलों से घर को
साथ लेकर कोई आधी अधूरी किताब....
(क़ुतुबखाना=Library)
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