नहीं हुआ करती देरी....
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होती नहीं है
उम्र कोई
सादे सफ़ों के मैदान में
खेलने की...
यह कोई नाच तो नहीं
ना ही है मॉडलिंग
जो कि हो जाओ तुम
'चुके चूसे से'
साल उन्नीस के होकर...
नहीं हुआ करती
देरी कोई
करने को शिरकत
महफ़िले अदब में...
होते जाओगे
बड़े ज्यों ज्यों
निखरेगी और
ये कलम तुम्हारी
बढ़ जाएगी
समझ जो तुम्हारी...
ग़र लिख पाओगे तुम
कुछ अहम ओ खूबसूरत
ताज़ा ओ मानीखेज़
खोज लेगा उसको
कोई ना कोई
असल पढ़ने वाला...
खुद ब खुद दुनिया
बना लेगी जगह
तुम्हारे लिए
किताबों की अलमारियों में
उम्र के किसी भी
पड़ाव पर...
(नटखट सरदार ख़ुशवंत सिंह जी के लिखे से प्रेरित)
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