हार गया जो...
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चढ़ा देती है कितनी परतें
हर पल जीतने की आकांक्षा
रत हो जाते हैं दिखाने में स्वयं को
जो होते नहीं है हम दरअसल...
बन जाता है व्यष्टि का क्षेत्र
क्रीडाँगन समष्टि का
ले लेता है बुद्धि विलास
स्थान सहज स्पष्ट दृष्टि का...
कराने लगती है आत्म मुग्धता
ना जाने कितनी कुटिलताएँ
भ्रम स्व-विकास के
ले आते हैं अनगिनत जटिलताएँ...
सज जाती है
बाज़ी शब्दों की
अधरों की बिसात पर
हो जाता है तिमिर हावी
प्रकाश की बरसात पर...
यह मंचन जीत हार का
नहीं रास आता मुझ को
हार गया जो खुद ब खुद
कौन हरा पाता उसको ?
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