Thursday, 11 June 2020

चाहती हूँ मैं स्वयं होना....:विजया



चाहती हूँ मैं स्वयं होना...
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देखा था मैं ने प्रभाव तूफ़ान का
हिल गया था पेड़
कट गयी थी शाख़
सूख गए थे पत्ते
लहलहाने लगा था किंतु फिर से
जड़ से जो नहीं उखड़ा था...
अस्तित्व तो जड़ में है
व्यक्तित्व भी जड़ से हैं
पत्ते और फूल परिणाम है उसके
मात्र दर्शाव है उसके...

मूलतः होते हैं कुछ अन्य
या बना दिए जाते हैं कुछ अन्य
हम सब
और लग जाते हैं जीवनप्रयन्त
अन्य हो कर ही जीने में
चाहती हूँ इसीलिए मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में...

नहीं चाहती कभी भी मैं
विवश होकर
किसी दूसरे के दर्पण का बिम्ब होना
ना होना निश्चितता किसी गणितज्ञ की
ना होना किसी दार्शनिक का संशय
ना होना किसी कवि की कपोल कल्पना
ना होना ऐसा मित्र जो साथ ना दे सके...

चाहती हूँ मैं
होना जो भी मैं हूँ
करते रहना जो भी मैं करना चाहूँ
चाहती हूँ मैं
अपने सही ग़लत, झूठ सच, भले बुरे की
गुत्थियों को स्वयं ही सुलझाना
बिना किसी बाहरी सहायता के...

मैं तो हूँ
एक निराला ओला तूफ़ान का,
एक कारीगर
जो टूटे को जोड़ता है
एक आलिंगक
जो गले लगाता है स्नेहपिपासुओं को
एक उदार शालीन मानवी
जो द्वार खुला रखे अपना हर पल
एक प्रयासक
जो सक्रिय हो कुछ ना कुछ करते रहने में...

आशान्वित हूँ सदा
अच्छी सम्भावनाओं के लिए
लोगों में..घटनाओं में...लेने और देने में,
रचनात्मक हूँ
जिसे गहन प्रेम है सृजन से,
विश्वासी हूँ
नहीं है आध्यत्म में
धर्मांधता,कर्मकांड और रूढ़ियाँ
नहीं है जीवन में
कोई भी स्थानापन्न सहजता का,
चाहती हूँ  मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में....

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