काँच की दीवार
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तुम्हारे और मेरे बीच
हुआ करती थी
एक काँच की दीवार
जो होती थी
मगर दिखती नहीं थी
यह दीवार चलती थी
हर वक्त हमारे साथ साथ...
देखा जा सकता था
सब कुछ होता हुआ
इस पार और उस पार
इशारे भी हुआ करते थे
शब्द भी बोले जाते थे
जो पहुँचते थे
पतली दीवार के उस पार
अलग अलग ही थे हम
दिखा करते थे बस साथ साथ...
अचानक तुम बिफर गए
हाथों में पत्थर उठा लिए
औरों के हाथों में दे दिए
बरसने लगे थे पत्थर
बिखर कर उछल रही थी किरचें
लहू-लुहान थी मैं इस पार
टूट गयी थी दीवार,टूटे थे भ्रम
सब कुछ हो गया था साथ साथ...
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