स्त्री : चंद सवाल
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पुरुष प्रधान व्यवस्था में
स्त्री कहाँ कर पाई है साबित
अपने होने को
सदियों के संघर्षों के बाद भी ?
औढ कर अस्तित्व
दोयम दर्जे का
पाल कर भ्रम
बराबरी का
कब तक जिये जाएगी स्त्री ?
लपेट कर आवरणों में
लुभावनी सनदें भले ही दे दे
सचमुच उसे
उसके न्यायपूर्ण अधिकारों को
क्या दे पाएगा पुरुष ?
ज़ाहिर है देह और मन का अंतर
मर्द और औरत का
लेकिन नहीं है यह अंतर
कमतरी और बढ़तरी का,
कब स्वीकारेगा इस सच को
यह झूठा समाज ?
भरम रजामन्दियों का
ख़ामियाज़ा पाबंदियों का
क्यों उठाएगी
इक्कीसवीं सदी की
सक्षम और होशमंद स्त्री ?
मर्द को सब कुछ मुआफ़
औरत को सजा अनकिए गुनाह की
कब होगा निराकरण
शताब्दियों की
इस विसंगति का ?
आज़ादी के मायने
कुछ और हैं मर्द के लिए
बंधी हुई आज़ादी ही
मयस्सर है औरत के लिए
मिट पाएगा यह फ़र्क़
क्या कभी भी ?
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