Friday, 26 April 2019

फिर से एक बार,,,,,



फिर से एक बार,,,,,
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हुई थी कहानी शुरू 
उस रात के अंधेरे में 
सो रहे थे सब जिज्ञासु मस्तिष्क, 
चुपचाप बैठा था वो 
छूते हुए उँगलियों से 
की बोर्ड पर उभरे अक्षरों को,,,,,,
लुभा रही हो तुम मुझ को 
एक सादे पन्ने की तरह,
लिखा था उसने
त्वरित उत्तर पाने की व्याकुलता लिये 
प्रत्युत्तर जो भर सकता है 
उसके मन मस्तिष्क को 
कुछ और शब्दों से  
ला सकते हैं जो 
उसे उसकी 'कम्फ़र्ट जोंन' में,,,,

सरक आयी थी वो थोड़ी 
शोर मचाती भीड़ से 
और दे दिया था प्रत्युत्तर :
रहा करती है ना शून्यता मस्तिष्क में ही 
आदत जो पड़ी होती है 
खोये हुये को ढूँढने की,
नहीं है कोई भी 'शून्य' प्रकृति में..
ले जाने दो ना मुझे तुम को भरेपन की ओर..
आओ ना ! 
देखो तुम भी जैसे देखा करती हूँ मैं 
फिर शेयर करो मुझ से अपने उस 'देखे' को,,,,,

भेज कर टेक्स्ट 
निगला था मानो गहरा सा कुछ उसने, 
नहीं था सर्वथा मिथ्या 
जो कुछ भी देने का उपक्रम किया था उसने 
किंतु थी वो वस्तुत: उस पेशकश से कहीं अधिक 
उसकी एक अपूरित वांछा,,,,,

दे सकती हूँ मैं वो सब जो है ही नहीं पास मेरे,
ख़याल था उसका
भटक रहा था मन उसका 
परिपूर्ण करते हुये खुद को उन समस्त उपायों से,
जिनके लिए सक्षम थी केवल शून्यता ही,,,,

नहीं था निश्चित और स्पष्ट उसको 
क्या देने जा रही थी वह....
लेकिन सब वही तो था 
पाले हुए था तीव्र उत्कंठा जिन्हें पाने की चिरकाल से, 
ला दी थी उन शब्दों ने भावों की प्रचंड बाढ़ उसमें 
क्या नाम दें उसे : 
वासना ?
नशा ?
ख़ुमार ?
सुरूर ?
प्रेम ?
हाँ ! हाँ ! हाँ....कुछ भी,,,,

जैसे जैसे ऊपर बढ चला था सूरज 
नहीं दिया था ध्यान उसने 
अपनी थकन, क्षुधा और प्यास को,
भूल गया था वो 
अपने सूने सूने से दिन, 
दर्पण में निरखते बिताया समय,,,,,,
:
:
और गिनते हुए अपने बीते वर्षों को
कर दिया था प्रारम्भ लिखना उसने 
फिर से एक बार,,,,,

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