Friday, 1 August 2014

आकाश बाँधना चाहा था...(मेहर)

आकाश बाँधना चाहा था...
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सखी !
जाने अनजाने 
मैंने
नील निर्भर  
आकाश बांधना 
चाहा था...

नहीं दिया था 
उड़ने मैंने 
पंखों को दिशी दिशी,
मेरे कारण 
छू न सके थे 
निर्बाध सुर 
रवि-शशि, 
विवश देह संग 
मैंने री सखी 
आत्मा का
विकास बांधना 
चाहा  था..

बस की थी 
अनुकृति मैंने 
उस आकृति 
भर की,
मैंने री सखी 
रंग-रूप रश्मियाँ 
रेखाओं में 
भर दी,
अपने अनुभव के 
विकृत शव से 
मैंने 
श्वासों का 
विश्वास बांधना 
चाहा था..

सुसुप्त रही 
चेतना मेरी,
लगी थी 
निद्रा में ज्यों फेरी,
तटों को पुल से 
बाँध ना पायी,
सरिता के उन्मत 
नर्तन का 
मैंने 
विलास बाँधना 
चाहा था,,,,,

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