Tuesday, 5 August 2014

प्रेम : (नायेदाजी)

प्रेम 
# # #
होता है प्रेम
कितना
सप्रहणीय..

होते हैं प्रतीत
कष्ट भी
सुखद,
प्राप्य होता
परित्याग में भी
आनंद,
और होती है
वांछा
समर्पण सर्वस्व की...

होते हैं जब
गुंजरित
संस्वर
द्वि-प्राणों के,
होते हैं प्रस्फुटित
पुष्प
ललित कलाओं के....

प्रीति के
मनोरम क्षणों में
हुआ था घटित
जन्म सृष्टि का,
उदगम रागों का,
उत्पति सौंदर्य की,
प्राकट्य शक्ति का
एवम् एक्य
प्रकृति और पुरुष का...

(सप्रहणीय=प्राप्त करने योग्य. ( इसमें सोफ्टवेयर की लिमिटेशन के कारण वर्तनी कि अशुद्धि है..'प्र' को 'पृ' पढ़ें कृपया.)

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