Monday, 4 August 2014

ज़ज़्बा-ए-कामयाबी (अंकितजी)

ज़ज़्बा-ए-कामयाबी 

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मकान चाहिए गर रिहायश को तुझ को
कागज-ओ- कलम से खींचे नक्शा कोई
सिर ढकने के काबिल एक मकान नहीं होता
किस्मत के भरोसे रहे बैठे मेरे यारों !
कामचोरों का मुकम्मल जहाँ नहीं होता.

मन के खेत में डालो तमन्नाओं के बीज यारों
लग्न और मेहनत से करनी है रखवाली तुझ को
सिंचोगे पसीने से अपने तो लहल़ाहाएगी फसलें
कामयाब होने वालों का मुर्दा-बयां नहीं होता.

पूछा किया नजोमी से हाल-ए-किस्मत अपना तुम ने
ना जाने सितारों के किस चलन से कहा कुछ उस ने
सोचो कभी उनके इल्म में तो 
खुद के मुकद्दर का माकूल ठिकाना नहीं होता.

कहते हो रात-ओ-दिन चिल्ला के
उनकी किस्मत का सितारा था बुलंद
कामयाबी उनकी नसीब के पीछे हुई
मेहनत और  तक़लफों के 
हिसाबों का मिलाना नहीं होता.

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