Scribblings : नैसर्गिकता- (Spontaneity)
हिंदी रूपांतरण : मुदिताजी एवं मधुरिमाजी
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कितने सहज थे
हम,
हुआ करते थे
जब
शिशु नादान..
हो गयी है
एकत्र
तब से
धूल कितनी :
ना जाने कितने
अनुशासन,
नैतिकताएं
पुण्य
स्वरुप
भूमिकाएं
और
क्या क्या नहीं,
हो गयी है
विस्मृत
हमसे
भाषा
केवल मात्र
हमारे
'स्वयं' होने की ...
नहीं की
जा सकती
रचना
सहजता की,
ना ही
किया जा सकता
कर्षण इसका,
यदि की जाती है
खेती इसकी
नहीं रखा
जा सकता
विद्यमान इसको,
उगाई हुई
सहजता
होती है
छद्म ,
कृत्रिम
और
मिथ्या
मात्र अभिनय सी
बस रंगी पुती,
निकल आता है
वर्ण वास्तविक
तनिक खुरचने से...
आती है
स्वाभाविकता
केन्द्र से,
होती नहीं वह
बोई हुई
कोई राह नहीं
रचने की इसको,
नहीं कोई
आवश्यकता
उपजाने की इसको,
संभव नहीं
अवलोकन इसका,
बस होती है
अनुभूति इसकी,
स्वाभाविक
अथवा
अस्वाभाविक ?????
देता है प्रत्युत्तर
इसका
हृदय हमारा,
और
कोई भी प्रवर्तन
सत्यता का,
ले आता है
सतह पर
कृत्रिम सहजता को
और
उतर जाते हैं
सभी मुखौटे ...
करनी है
पुनर्शोध
हमें
इसी नैसर्गिकता की,
बजाय
इसके निर्माण के प्रयासों के
इसके कर्षण हेतु संघर्षों के,
आरम्भ करें
हम यात्रा
स्वयं के
पुनः अन्वेषण की,
करे खोज हम फिर से
स्वयंस्फूर्त
नैसर्गिकता की,
गिर जाते हैं
जहाँ
मिथ्या आवरण सभी
और
होता है
आविर्भाव
हमारा
अपने ही
सत्व के
स्वरूप में .......
कितने सहज थे
हम,
हुआ करते थे
जब
शिशु नादान..
हो गयी है
एकत्र
तब से
धूल कितनी :
ना जाने कितने
अनुशासन,
नैतिकताएं
पुण्य
स्वरुप
भूमिकाएं
और
क्या क्या नहीं,
हो गयी है
विस्मृत
हमसे
भाषा
केवल मात्र
हमारे
'स्वयं' होने की ...
नहीं की
जा सकती
रचना
सहजता की,
ना ही
किया जा सकता
कर्षण इसका,
यदि की जाती है
खेती इसकी
नहीं रखा
जा सकता
विद्यमान इसको,
उगाई हुई
सहजता
होती है
छद्म ,
कृत्रिम
और
मिथ्या
मात्र अभिनय सी
बस रंगी पुती,
निकल आता है
वर्ण वास्तविक
तनिक खुरचने से...
आती है
स्वाभाविकता
केन्द्र से,
होती नहीं वह
बोई हुई
कोई राह नहीं
रचने की इसको,
नहीं कोई
आवश्यकता
उपजाने की इसको,
संभव नहीं
अवलोकन इसका,
बस होती है
अनुभूति इसकी,
स्वाभाविक
अथवा
अस्वाभाविक ?????
देता है प्रत्युत्तर
इसका
हृदय हमारा,
और
कोई भी प्रवर्तन
सत्यता का,
ले आता है
सतह पर
कृत्रिम सहजता को
और
उतर जाते हैं
सभी मुखौटे ...
करनी है
पुनर्शोध
हमें
इसी नैसर्गिकता की,
बजाय
इसके निर्माण के प्रयासों के
इसके कर्षण हेतु संघर्षों के,
आरम्भ करें
हम यात्रा
स्वयं के
पुनः अन्वेषण की,
करे खोज हम फिर से
स्वयंस्फूर्त
नैसर्गिकता की,
गिर जाते हैं
जहाँ
मिथ्या आवरण सभी
और
होता है
आविर्भाव
हमारा
अपने ही
सत्व के
स्वरूप में .......
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