Tuesday, 29 July 2014

मैं क्या करूँ जी...

मैं क्या करूँ जी...

(नजमा के तकियाकलाम को उन्वान बना कर लिखा है...अपनी राय दें.)
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समंदर है
निठल्ला
आलसी
ठहरा ठहरा
है ढलती हुई
जवानी,
नदियाँ है
चंचल
फुर्तीली
जिंदा है
उनकी
रवानी...

कितनी
बेशर्मी और
नंगापन है
आफताब में,
ढक रखा है
बिजलियों ने
चेहरा
मगर
हिजाब में...

कितना
बेहया है
देखो यह
तना,
डालियों ने
मगर
छुपाया
बदन
अपना....

कितनी
बासी बासी सी
लग रही
हकीक़त,
लिए है ताज़गी
ख्वाबों की
हसीँ
फ़ित्रत.....

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