Saturday, 11 January 2020

दीवानगी उसकी या उलझे धागे : "हट" नामा



दीवानगी उसकी या उलझे धागे : "हट" नामा 
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वर्णों के मिलन से 
जन्मते हैं शब्द निरंतर 
कभी होता है आशय आरम्भ से 
कभी पा जाते हैं अर्थ अनंतर,
कहने का लहजा 
करता है शब्दों में प्राण प्रतिष्ठा,
तब होती है व्यक्त शब्दों से ही 
निष्ठा प्रतिष्ठा और अनिष्ठा,,,

ख़ुशगवार बातें 'उसकी'
जब जब कानों की राह 
'उनके' दिलो ज़ेहन तक पहुँची 
विभोर था रोम रोम 'उनका'
छलक रही थी ख़ुशी वो सच्ची 
कह कर प्यार से लबरेज़ "हट !"
कर दी थी ज़ाहिर उन्होंने
दीवानगी अपनी,,,

ले ली थी चुटकी 'उसने'
छेड़ कर सब तार उनके...
भाव सिक्त बातें 
प्यार ओ अभिसार की 
'उनके' वजूद को गुदगुदाकर 
खिला रही थी लाली 
उनके हसीन रुखसार की,
लहराकर बाँके चितवन 
"गंदी बात -गंदी बात !"
चाहा था कहना प्रकट अप्रकट 
कह दिया था वही उन्होंने 
बुदबुदाकर होले से  "हट !"

चुहल 'उसकी'
भर गयी थी गमक रोम रोम में 
स्पंदन और कम्पन जगा गए थे
अनजाना अनछुआ 'उनमें'
कह कर लजीला सा "हट"
जता दिया था प्यार उन्होंने अपना 
"धत्त शर्म नहीं आती !" 
कहना चाहा था कुछ ऐसा ही ना,,,,

राहें मगर 'उसकी'थी 
ज़रा जग लीक से हट कर 
हुआ था मंज़ूर 'उनको'
उन पर चलना जो डट कर
हो जाती थी चर्चायें शायद 
कभी मन की कभी बेमन की 
लगती थी छद्म दूरियाँ 
आत्मा और तन बदन की 
बाधित हुआ था विचरण
बेतरतीब मग में उनका 
बिन कहे वही "हट !" जताते थे 
अवांछित हो जाना 'उसका' ?

उलझे हुए धागों को 
सुलझाना ज़रूरी था 
भेद कर 'हट' की माया 
असमंजस को हटाना ज़रूरी था 
अफ़साना जिसे अंजाम तक 
लाना हो नामुमकिन 
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर 
छोड़ देना ज़रूरी था,,,

ख़याल आयी थी गोकुल की 
सिर जल घट लिए ब्रज बाला या 
कुंज गलिन में दधि छाछ लिए 
आती जाती गुजरिया 
राह रोके खड़े थे मानो हठी छलिया
"हट कान्हा हट ना  !" की ध्वनि 'उनकी'
हुई थी जब जब गुंजरित 
झुँझलाहट थी....
लज्जा थी या 'कुछ और" ?
प्रश्न लघु यह रहेगा सदा अनुत्तरित,,,

ध्यान आया था 
कुरु सभा में अपमानित 
द्रौपदी की पुकार का 
कुरुक्षेत्र में पार्थ की हताशा 
और कृष्ण की ललकार का 
अव्युक्त अनिरुद्ध  का सुमार्ग से 'ना हटना'
रणछोड़ का समरांगण से स्वेच्छायुक्त 'हटना'
आई थे पुकार अंतरंग से 
फिर एक बार "हट जा !"
बहुत डूबा तैरा है तू जलधि में 
परिवर्तन ! अब तो तनिक " तट जा !"

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